हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 1: मनु की पुत्रियों की वंशावली  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  4.1.18 
तस्मिन् प्रसूनस्तबकपलाशाशोककानने ।
वार्भि: स्रवद्‌भिरुद्‍घुष्टेनिर्विन्ध्याया: समन्तत: ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—उसमें; प्रसून-स्तबक—पुष्प गुच्छ; पलाश—पलाश के वृक्ष (छिउल); अशोक—अशोक के पेड़; कानने—वनोद्यान में; वार्भि:—जल से; स्रवद्भि:—बहते हुए; उद्धुष्टे—ध्वनि में; निर्विन्ध्याया:—निर्विन्ध्या नदी की; समन्तत:—सर्वत्र ।.
 
अनुवाद
 
 उस पर्वत घाटी में निर्विन्ध्या नामक नदी बहती है। इस नदी के तट पर अनेक अशोक के वृक्ष तथा पलाश पुष्पों से लदे अन्य पौधे हैं। वहाँ झरने से बहते हुए जल की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती रहती है। वे पति तथा पत्नी ऐसे सुरम्य स्थान में पहुँचे।
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥