श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 1: मनु की पुत्रियों की वंशावली  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  4.1.2 
आकूतिं रुचये प्रादादपि भ्रातृमतीं नृप: ।
पुत्रिकाधर्ममाश्रित्य शतरूपानुमोदित: ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
आकूतिम्—आकूति; रुचये—परम साधु रुचि को; प्रादात्—प्रदान किया; अपि—यद्यपि; भ्रातृ-मतीम्—भाई वाली कन्या; नृप:—राजा; पुत्रिका—पुत्री से प्राप्त पुत्र को ग्रहण करना; धर्मम्—धार्मिक कृत्य; आश्रित्य—शरण में जाकर; शतरूपा— स्वायंभुव मनु की पत्नी के द्वारा; अनुमोदित:—स्वीकृत ।.
 
अनुवाद
 
 आकूति के दो भाई थे तो भी राजा स्वायंभुव मनु ने इसे प्रजापति रुचि को इस शर्त पर ब्याहा था कि उससे, जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मनु को पुत्र रूप में लौटा दिया जाएगा। उसने अपनी पत्नी शतरूपा के परामर्श से ऐसा किया था।
 
तात्पर्य
 कभी कभी नि:सन्तान व्यक्ति अपनी पुत्री को इस शर्त के साथ उसके पति को देता है कि वह उसे नाती लौटा दे जिसे वह पुत्र रूप में ग्रहण करके अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बना दे। यह पुत्रिका-धर्म कहलाता है, जिसका अर्थ होता है कि अपनी पत्नी से कोई पुत्र न होने पर भी धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा वह पुत्र प्राप्त कर सकता है। किन्तु यहाँ पर हम मनु के साथ विचित्र बात देखते हैं। अपने दो पुत्रों के होते हुए भी उन्होंने अपनी प्रथम पुत्री का विवाह प्रजापति रुचि के साथ इस शर्त पर किया कि उनकी पुत्री से, जो पुत्र उत्पन्न हो वह उन्हें पुत्र रूप में लौटा दिया जाय। इस प्रसंग में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की टीका है कि राजा मनु को ज्ञात था कि आकूति के गर्भ से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् जन्म लेंगे, अत: अपने दो पुत्र होते हुए भी वे आकूति से उत्पन्न पुत्र विशेष को अपना पुत्र बनाना चाहते थे, क्योंकि वे श्रीभगवान् को अपने पुत्र तथा नाती के रूप में चाह रहे थे। मनु मानव जाति के विधि-निर्माता हैं और चूँकि उन्होंने स्वयं पुत्रिका-धर्म निबाहा, अत: हम यह स्वीकार कर सकते हैं कि मनुष्य जाति भी इस प्रणाली को ग्रहण कर सकती है। अत:अपना पुत्र होते हुए भी यदि कोई अपनी पुत्री के किसी एक पुत्र को लेना चाहे तो वह इस शर्त के साथ अपनी कन्या का दान कर सकता है। ऐसा श्रील जीव गोस्वामी का मत है।
 
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