हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 1: मनु की पुत्रियों की वंशावली  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  4.1.25 
कृपावलोकेन हसद्वदनेनोपलम्भितान् ।
तद्रोचिषा प्रतिहते निमील्य मुनिरक्षिणी ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
कृपा-अवलोकेन—कृपा से देखते हुए; हसत्—हँसते हुए; वदनेन—मुखों वाले; उपलम्भितान्—अत्यन्त प्रसन्न दिखते हुए; तत्—उनके; रोचिषा—तेज से; प्रतिहते—चकाचौंध होकर; निमील्य—मूँदकर; मुनि:—मुनि; अक्षिणी—अपने नेत्र ।.
 
अनुवाद
 
 अत्रि मुनि यह देखकर अत्यधिक प्रमुदित हुए कि तीनों देव उन पर कृपालु हैं। उनके नेत्र उन देवों के शरीर के तेज से चकाचौंध हो गये, अत: उन्होंने कुछ समय के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।
 
तात्पर्य
 चूँकि तीनों देव मुस्करा रहे थे, अत: अत्रि मुनि समझ गये कि वे उन पर कृपावान हैं। उनका जाज्ज्वल्यमान शारीरिक तेज असह्य था, अत: अत्रि ने कुछ समय तक अपनी आँखें बन्द कर लीं।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥