किन्तु पहले से उनका हृदय इन देवों के प्रति आकृष्ट था, अत: जिस-तिस प्रकार उन्होंने होश सँभाला और वे हाथ जोड़ कर ब्रह्माण्ड के प्रमुख अधिष्ठाता देवों की मधुर शब्दों से स्तुति करने लगे। अत्रि मुनि ने कहा : हे ब्रह्मा, हे विष्णु तथा हे शिव, आपने भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों को अंगीकार करके अपने को तीन शरीरों में विभक्त कर लिया है, जैसा कि आप प्रत्येक कल्प में दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए करते आये हैं। मैं आप तीनों को सादर नमस्कार करता हूँ और मैं जानना चाहता हूँ कि मैने अपनी प्रार्थना में आपमें से किसको बुलाया था?
तात्पर्य
अत्रि मुनि ने जगदीश्वर अर्थात् ब्रह्माण्ड के स्वामी का आवाहन किया था। भगवान् सृष्टि के पूर्व विद्यमान रहे होंगे, अन्यथा वे इसके स्वामी (ईश्वर) कैसे बनते? यदि कोई भवन का निर्माण कराता है, तो इससे सूचित होता है कि वह उस भवन-निर्माण के पहले से विद्यमान है। फलत: ब्रह्माण्ड के स्रष्टा परमेश्वर को त्रिगुणातीत होना चाहिए। किन्तु यह ज्ञात है कि विष्णु सत्त्वगुण के, ब्रह्मा रजोगुण के तथा शिव तमोगुण के अध्यक्ष हैं। अत: अत्रि मुनि ने कहा “वह जगदीश्वर अवश्य ही आपमें से ही कोई है। किन्तु आप तीनों एकसाथ प्रकट हुए हैं, अत: मैं यह नहीं पहचान पा रहा कि मैंने किसका आवाहन किया था। कृपया मुझे बताएँ कि आपमें से वास्तव में कौन जगदीश्वर हैं?” वस्तुत: अत्रि मुनि को भगवान् विष्णु की स्वाभाविक स्थिति के विषय में संदेह था, किन्तु उनका दृढ़ विश्वास था कि जगदीश्वर माया द्वारा उत्पन्न प्राणी नहीं हो सकता। उनका यह प्रश्न कि उन्होंने किसे बुलाया था यह सूचित करता है कि वे भगवान् की वैधानिक स्थिति के विषय में संशयपूर्ण थे। अत: उन्होंने तीनों से प्रार्थना की, “कृपया मुझे बताएँ कि जगत का दिव्य स्वामी कौन है?” वस्तुत:, उनका विश्वास था कि सारे के सारे भगवान् नहीं हो सकते, बल्कि इन तीनों में से एक ही जगदीश्वर हो सकता है।
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