प्रजापति: स भगवान् रुचिस्तस्यामजीजनत् ।
मिथुनं ब्रह्मवर्चस्वी परमेण समाधिना ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
प्रजापति:—जिसे संतान उत्पन्न करने का भार सौंपा गया हो; स:—वह; भगवान्—परम ऐश्वर्यशाली; रुचि:—परम साधु रुचि; तस्याम्—उससे; अजीजनत्—उत्पन्न हुआ; मिथुनम्—जोड़ी, युग्म; ब्रह्म-वर्चस्वी—आध्यात्मिक रूप से अत्यन्त शक्तिमान; परमेण—परम बलशाली; समाधिना—समाधि में ।.
अनुवाद
अपने ब्रह्मज्ञान में परम शक्तिशाली एवं जीवात्माओं के जनक के रूप में नियुक्त (प्रजापति) रुचि को उनकी पत्नी आकूति के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुए।
तात्पर्य
ब्रह्म-वर्चस्वी शब्द अत्यन्त सार्थक है। रुचि ब्राह्मण थे और वे संयमपूर्वक ब्रह्मकार्यों का पालन करते थे। जैसाकि भगवद्गीता में उल्लेख है, ब्रह्म-गुण इस प्रकार हैं—इन्द्रियों का संयम, मन का संयम, अन्त: तथा बाह्य स्वच्छता, आध्यात्मिक तथा भौतिक ज्ञान की उन्नति, सादगी, सत्यता, श्रीभगवान् में श्रद्धा इत्यादि। ऐसे अनेक गुण हैं जिनसे ब्रह्मवादी व्यक्तित्व प्रकट होता है और ऐसा माना जाता है कि रुचि ब्रह्मवादी सिद्धान्तों का दृढ़ता से पालन करने वाले थे। इसलिए उन्हें विशेष रूप से ब्रह्मवर्चस्वी कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर ब्राह्मण-जैसा आचरण न करने वाले को वैदिक भाषा में ब्रह्म-बन्धु कहा जाता है और उसकी गणना शूद्रों तथा स्त्रियों की कोटि में की जाती है। इस प्रकार हम भागवत से यह देखते हैं कि वेदव्यास ने महाभारत की रचना विशेषरूप से स्त्री-शूद्र-बह्म बन्धु के लिए की थी। स्त्री, शूद्र तथा ब्रह्म-बन्धु—ये तीनों वर्ग अल्पज्ञ कहलाते हैं, ये वेदों का अध्ययन नहीं कर पाते, क्योंकि वेद तो उन लोगों के लिए है जिन्होंने ब्रह्म-योग्यता प्राप्त की हो। यह प्रतिबन्ध किसी जाति भेद पर आधारित न होकर योग्यता (पात्रता) पर निर्भर है। बिना ब्रह्म-योग्यता प्राप्त किए वैदिक साहित्य समझा नहीं जा सकता। अत: यह बड़े ही दुख की बात है कि ऐसे व्यक्ति जिनमें ब्रह्म-योग्यता नहीं हो और, जो प्रामाणिक गुरु द्वारा प्रशिक्षित नहीं हुए होते वे श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों जैसे वैदिक साहित्य की टीका करते हैं। ऐसे लोग कभी भी इन ग्रन्थों के वास्तविक सन्देश को प्रदान नहीं कर सकते। रुचि प्रथम श्रेणी के ब्राह्मण माने जाते थे इसीलिए उन्हें ब्रह्म-वर्चस्वी अर्थात् ब्राह्मण-कौशल में पूर्ण दक्ष कहा गया है।
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