स्वायंभुव मनु परम प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ नामक सुन्दर बालक को अपने घर ले आये और उनके जामाता रुचि ने पुत्री दक्षिणा को अपने पास रखा।
तात्पर्य
स्वायंभुव मनु यह देखकर अत्यन्त प्रसन्न थे कि उनकी पुत्री से एक लडक़ा तथा एक लडक़ी उत्पन्न हुए। उन्हें भय था कि उनके द्वारा पुत्र लेने से उनके जामाता रुचि दुखी हो सकते हैं। अत: जब उन्होंने सुना कि उनकी पुत्री ने एक लडक़ा तथा एक लडक़ी को जन्म दिया है, तो वे परम प्रफुल्लित हुए। रुचि ने वचन के अनुसार अपना पुत्र स्वायंभुव मनु को दे दिया और कन्या को, जिसका नाम दक्षिणा था, अपने पास रखने का निश्चय किया। भगवान् विष्णु का एक नाम यज्ञ भी है, क्योंकि वे वेदों के स्वामी हैं। यज्ञ नाम यजुषां पति: से आया है, जिसका अर्थ है “समस्त यज्ञों के स्वामी।” यजुर्वेद में यज्ञों के सम्पन्न करने की अनेक विधियाँ दी हुई हैं और इन समस्त यज्ञों के भोक्ता विष्णु भगवान् हैं। अत: भगवद्गीता (३.९) में कहा गया है—यज्ञार्थात् कर्मण:—मनुष्य को कर्म करना चाहिए, किन्तु मनुष्य को अपना नियत कर्तव्य ‘यज्ञ’ अथवा विष्णु के लिए करना चाहिए। यदि मनुष्य श्रीभगवान् को प्रसन्न करने के लिए कर्म नहीं करता, अथवा भक्ति नहीं करता तो उसके इन कार्यों का प्रतिफल होगा भले ही वह अच्छा हो या बुरा। यदि हमारे कार्य भगवत् इच्छा के अनुरूप नहीं हैं, अथवा यदि हम कृष्णभावना में कार्य नहीं करते तो हम अपने कार्यों के फल के लिए उत्तरदायी होंगे। प्रत्येक प्रकार के कार्य (क्रिया) का फल (प्रतिक्रिया) होता है, किन्तु यदि ये कार्य यज्ञ के लिए किये जाँय तो कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। इस प्रकार यदि कोई मनुष्य यज्ञ अथवा श्रीभगवान् के लिए कार्य करता है, तो वह इस भव-बन्धन में नहीं फँसता, क्योंकि वेदों तथा भगवद्गीता में भी इसका उल्लेख है कि जितने भी वेद और वैदिक अनुष्ठान हैं, वे भगवान् कृष्ण को समझने के लिए हैं। मनुष्य को चाहिए कि प्रारम्भ से ही कृष्णभावनाभावित होकर कार्य करे। इससे मनुष्य भौतिक जंजालों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त हो सकेंगे।
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