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श्लोक 4.1.53  |
ययोर्जन्मन्यदो विश्वमभ्यनन्दत्सुनिर्वृतम् ।
मनांसि ककुभो वाता: प्रसेदु: सरितोऽद्रय: ॥ ५३ ॥ |
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शब्दार्थ |
ययो:—जिनमें से दोनों (नर तथा नारायण); जन्मनि—जन्म लेने पर; अद:—वह; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; अभ्यनन्दत्—आनन्दित हुआ; सु-निर्वृतम्—खुशी से पूर्ण; मनांसि—प्रत्येक का मन; ककुभ:—दिशाएँ; वाता:—वायु; प्रसेदु:—प्रसन्न हुए; सरित:— नदियाँ; अद्रय:—पर्वत ।. |
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अनुवाद |
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नर-नारायण के जन्म के अवसर पर समस्त विश्व आनन्दित था। प्रत्येक का मन शान्त था और इस प्रकार समस्त दिशाओं में वायु, नदियाँ तथा पर्वत मनोहर लगने लगे। |
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