देवा:—देवताओं ने; ऊचु:—कहा; य:—जो; मायया—बहिरंगा शक्ति द्वारा; विरचितम्—उत्पन्न; निजया—स्वत:; आत्मनि— भगवान् में स्थित; इदम्—यह; खे—आकाश में; रूप-भेदम्—बादल-समूह; इव—सदृश, मानो; तत्—उसका; प्रतिचक्षणाय—प्रकट होने के लिए; एतेन—इसके साथ; धर्म-सदने—धर्म के घर में; ऋषि-मूर्तिना—ऋषि के रूप द्वारा; अद्य—आज; प्रादुश्चकार—प्रकट हुआ; पुरुषाय—श्रीभगवान् को; नम:—नमस्कार है; परस्मै—परम ।.
अनुवाद
देवताओं ने कहा : हम उस दिव्य रूप भगवान् को नमस्कार करते हैं जिन्होंने इस दृश्य जगत की सृष्टि अपनी बहिरंगा शक्ति के रूप में की है, जो उनमें उसी प्रकार स्थित है, जिस प्रकार वायु तथा बादल आकाश में रहते हैं और जो अब धर्म के घर में नर-नारायण ऋषि के रूप में प्रकट हुए हैं।
तात्पर्य
भगवान् का विराट रूप यह दृश्य जगत है, जो श्रीभगवान् की बहिरंगा शक्ति का प्रदर्शन है। आकाश में असंख्य विविध प्रकार के लोक हैं और वायु भी है; वायु में विविधरंगी बादल रहते हैं और कभी-कभी हम एक स्थान से दूसरे स्थान को उड़ते विमान भी देखते हैं। इस प्रकार यह दृश्य जगत विविधता से पूर्ण है, किन्तु वास्तव में यह विविधता परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति का प्रदर्शन है और यह शक्ति उन्हीं में स्थित है। अपनी शक्ति को प्रकट करने के बाद अब भगवान् स्वयं अपनी ही शक्ति की सृष्टि के अन्तर्गत प्रकट हुए हैं, जो एक ही समय उनसे अभिन्न है तथा भिन्न भी हैं; अत: देवताओं ने अनेक रूपों में प्रकट होने वाले श्रीभगवान् को नमस्कार किया। कुछ अद्वैतवादी दार्शनिक अपने निर्गुण चिन्तन के कारण इन रूपों को मिथ्या मानते हैं। इस श्लोक में विशेष रूप से यह कहा गया है—यो मायया विरचितम्। यह सूचित करता है कि ये रूप श्रीभगवान् की शक्ति के प्रकटीकरण (सारूप्य) हैं। इस प्रकार शक्ति के भगवान् से अभिन्न होने के कारण ये रूप वास्तविक हैं। भौतिक रूप क्षणिक भले हों, किन्तु मिथ्या नहीं हैं। वे आत्मरूपों के प्रतिबिम्ब हैं। यहाँ पर प्रयुक्त प्रतिचक्षणाय शब्द, जिसका अर्थ है “वे रूप (किस्में) हैं” श्रीभगवान् का यश घोषित करता है, जो नर-नारायण के रूप में प्रकट हुए हैं और जो भौतिक प्रकृति के समस्त रूपों के मूल हैं।
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