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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 1: मनु की पुत्रियों की वंशावली  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  4.1.6 
तां कामयानां भगवानुवाह यजुषां पति: ।
तुष्टायां तोषमापन्नोऽजनयद् द्वादशात्मजान् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
ताम्—उसको; कामयानाम्—इच्छुक; भगवान्—भगवान् ने; उवाह—विवाह कर लिया; यजुषाम्—समस्त यज्ञों के; पति:— स्वामी; तुष्टायाम्—अपनी पत्नी में अत्यन्त प्रसन्न; तोषम्—अत्यधिक प्रसन्नता; आपन्न:—प्राप्त करके; अजनयत्—जन्म दिया; द्वादश—बारह; आत्मजान्—पुत्रों को ।.
 
अनुवाद
 
 यज्ञों के स्वामी भगवान् ने बाद में दक्षिणा के साथ विवाह कर लिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, को अपने पति रूप में प्राप्त करने के लिए परम इच्छुक थी। उनकी इस पत्नी से उन्हें बारह पुत्र प्राप्त हुए।
 
तात्पर्य
 आदर्श पति-पत्नी की तुलना सामान्य रूप से लक्ष्मी-नारायण से की जाती है, और यह महत्वपूर्ण है कि वे लक्ष्मी-नारायण कहलाते हैं क्योंकि लक्ष्मी-नारायण पत्नी-पति रूप में सदैव सुखी रहते हैं। पत्नी को चाहिए कि वह सदैव अपने पति से सन्तुष्ट रहे और पति को भी पत्नी से सन्तुष्ट रहना चाहिए। पंडित चाणक्य के निति श्लोक चाणक्य-श्लोक में कहा गया है कि यदि पति-पत्नी एक दूसरे से सदा सन्तुष्ट रहें तो ऐश्वर्य की देवी उनके यहाँ स्वत: पदार्पण करती है। दूसरे शब्दों में, जहाँ पति तथा पत्नी में कोई मतभिन्नता नहीं है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है और अच्छी सन्तान उत्पन्न होती है। वैदिक सभ्यता के अनुसार सामान्य रूप से पत्नी को प्रत्येक दशा में संतुष्ट रहने का प्रशिक्षण मिलता है और पति से अपेक्षा की जाती है कि वह पर्याप्त भोजन, वस्त्र और आभूषणों से पत्नी को संतुष्ट रखे। जब वे परस्पर व्यवहार से इस प्रकार प्रसन्न रहते हैं तब उन्हें अच्छी संतानें प्राप्त होती हैं। इस तरह से सम्पूर्ण विश्व में शान्ति आ सकती है। किन्तु दुर्भाग्य से इस कलियुग में आदर्श पतियों और पत्नियों का अभाव है। इसलिए अनुपेक्षित संतानें पैदा होती हैं और आज के समय में संसार में न शान्ति है, न सम्पन्नता
 
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