पितरि—पिता के समान; अप्रतिरूपे—अनुपयुक्त; स्वे—अपने; भवाय—शिव को; अनागसे—निर्दोष; रुषा—क्रोध से; अप्रौढा—प्रौढ़ होने के पूर्व; एव—ही; आत्मना—अपने से; आत्मानम्—शरीर; अजहात्—त्याग दिया; योग-संयुता—योग से ।.
अनुवाद
इसका कारण यह है कि सती के पिता दक्ष शिवजी के दोषरहित होने पर भी उनकी भर्त्सना करते रहते थे। फलत: परिपक्व आयु के पूर्व ही सती ने अपने शरीर को योगशक्ति से त्याग दिया था।
तात्पर्य
समस्त योगियों के प्रधान होते हुए भी शिवजी ने अपने लिए कोई आवास नहीं बनाया। सती एक महान् राजा दक्ष की सबसे छोटी पुत्री थीं और चूँकि सती ने शिव को अपने पति के रूप में चुना था, अत: राजा दक्ष अधिक प्रसन्न नहीं था। फलत: जब भी वह अपने पिता से मिलतीं, वह उनके पति की आलोचना करते, यद्यपि शिवजी निर्दोष थे। इस कारण से युवावस्था के पूर्व ही सती ने पिता दक्ष द्वारा प्रदत्त शरीर को त्याग दिया जिससे उसके कोई सन्तान न हो पाई।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत “मनु की पुत्रियों की वंशावली” नामक प्रथम अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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