श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 10: यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  4.10.10 
तेऽपि चामुममृष्यन्त: पादस्पर्शमिवोरगा: ।
शरैरविध्यन् युगपद् द्विगुणं प्रचिकीर्षव: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
ते—यक्षगण; अपि—भी; च—तथा; अमुम्—ध्रुव पर; अमृष्यन्त:—असह्य होने पर; पाद-स्पर्शम्—पाँव से छुये जाकर; इव— सदृश; उरगा:—सर्प; शरै:—बाणों से; अविध्यन्—प्रहार किया जाकर; युगपत्—उसी समय; द्वि-गुणम्—दो गुना; प्रचिकीर्षव:—प्रतिशोध की भावना से ।.
 
अनुवाद
 
 जिस प्रकार सर्प किसी के पाँव द्वारा कुचले जाने को सहन नहीं कर पाते, उसी प्रकार यक्ष भी ध्रुव महाराज के आश्चर्यजनक पराक्रम को न सह सकने के कारण, उन पर एक साथ उनसे दुगुने बाण—अर्थात् प्रत्येक सैनिक छह-छह बाण—छोडऩे लगे और इस प्रकार उन्होंने अपनी शूरवीरता का बड़ी बहादुरी से प्रदर्शन किया।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥