श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 10: यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  4.10.13 
औत्तानपादि: स तदा शस्त्रवर्षेण भूरिणा ।
न एवाद‍ृश्यताच्छन्न आसारेण यथा गिरि: ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
औत्तानपादि:—ध्रुव महाराज; स:—वह; तदा—उस समय; शस्त्र-वर्षेण—शस्त्रों की वर्षा से; भूरिणा—निरन्तर; न—नहीं; एव—निश्चय ही; अदृश्यत—दिखाई पड़ता था; आच्छन्न:—ढका हुआ; आसारेण—निरन्तर वर्षा से; यथा—जिस प्रकार; गिरि:—पर्वत ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज आयुधों की निरन्तर वर्षा से पूरी तरह ढक गये मानो निरन्तर जल-वृष्टि से कोई पर्वत ढक गया हो।
 
तात्पर्य
 श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ने इंगित किया है कि यद्यपि ध्रुव महाराज शत्रुओं की निरन्तर बाण-वर्षा से ढक गये थे, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं था कि वे युद्ध हार चुके थे। यहाँ पर निरन्तर वर्षा से आच्छादित पर्वत का उदाहरण उपयुक्त है, क्योंकि निरन्तर वर्षा से पर्वत के ढक जाने पर उसकी सारी गन्दगी धुल जाती है। इसी प्रकार शत्रुओं की निरन्तर बाण-वर्षा से ध्रुव महाराज में उन्हें पराजित करने की नवीन शक्ति आ गई। दूसरे शब्दों में, उनमें जो भी अपूर्णता थी वह सारी की सारी धुल गई।
 
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