श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 10: यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  4.10.16 
धनुर्विस्फूर्जयन्दिव्यं द्विषतां खेदमुद्वहन् ।
अस्त्रौघं व्यधमद्बाणैर्घनानीकमिवानिल: ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
धनु:—उसका धनुष; विस्फूर्जयन्—टंकार, फूत्कार; दिव्यम्—आश्चर्यमय; द्विषताम्—शत्रुओं का; खेदम्—विषाद; उद्वहन्— उत्पन्न करते हुए; अस्त्र-ओघम्—विभिन्न प्रकार के हथियार; व्यधमत्—तितर-बितर कर दिया; बाणै:—बाणों से; घन— बादलों का; अनीकम्—दल; इव—सदृश; अनिल:—वायु ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज के धनुष-बाण टंकार तथा फूत्कार करने लगे जिससे उनके शत्रुओं के हृदय में त्रास उत्पन्न होने लगा। वे निरन्तर बाण बरसाने लगे, जिससे सभी के विभिन्न हथियार वैसे ही तितर-बितर हो गये, जिस प्रकार प्रबल वायु से आकाश में एकत्र बादल बिखर जाते हैं।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥