धनुर्विस्फूर्जयन्दिव्यं द्विषतां खेदमुद्वहन् ।
अस्त्रौघं व्यधमद्बाणैर्घनानीकमिवानिल: ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
धनु:—उसका धनुष; विस्फूर्जयन्—टंकार, फूत्कार; दिव्यम्—आश्चर्यमय; द्विषताम्—शत्रुओं का; खेदम्—विषाद; उद्वहन्— उत्पन्न करते हुए; अस्त्र-ओघम्—विभिन्न प्रकार के हथियार; व्यधमत्—तितर-बितर कर दिया; बाणै:—बाणों से; घन— बादलों का; अनीकम्—दल; इव—सदृश; अनिल:—वायु ।.
अनुवाद
ध्रुव महाराज के धनुष-बाण टंकार तथा फूत्कार करने लगे जिससे उनके शत्रुओं के हृदय में त्रास उत्पन्न होने लगा। वे निरन्तर बाण बरसाने लगे, जिससे सभी के विभिन्न हथियार वैसे ही तितर-बितर हो गये, जिस प्रकार प्रबल वायु से आकाश में एकत्र बादल बिखर जाते हैं।
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