श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 10: यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध  »  श्लोक 18-19
 
 
श्लोक  4.10.18-19 
भल्लै: सञ्छिद्यमानानां शिरोभिश्चारुकुण्डलै: ।
ऊरुभिर्हेमतालाभैर्दोर्भिर्वलयवल्गुभि: ॥ १८ ॥
हारकेयूरमुकुटैरुष्णीषैश्च महाधनै: ।
आस्तृतास्ता रणभुवो रेजुर्वीरमनोहरा: ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
भल्लै:—बाणों से; सञ्छिद्यमानानाम्—खण्ड-खण्ड हुए यक्षों के; शिरोभि:—सिरों से; चारु—सुन्दर; कुण्डलै:—कान के कुण्डलों से; ऊरुभि:—जाँघों से; हेम-तालाभै:—सुनहले ताड़ वृक्षों के समान; दोर्भि:—भुजाओं से; वलय-वल्गुभि:—सुन्दर कंकणों से; हार—हारों से; केयूर—बाजूबन्द; मुकुटै:—तथा मुकुटों; उष्णीषै:—पगडिय़ों से; च—भी; महा-धनै:—बहुमूल्य; आस्तृता:—आच्छादित; ता:—वे; रण-भुव:—रणभूमि; रेजु:—चमकने लगे; वीर—वीरों के; मन:-हरा:—मनों को हरनेवाले ।.
 
अनुवाद
 
 महर्षि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, ध्रुव महाराज के बाणों से जो सिर छिन्न-भिन्न हुए थे वे सुन्दर कुण्डलों तथा पागों से अच्छी तरह से अलंकृत थे। उन शरीरों के पाँव सुनहरे ताड़ के वृक्षों के समान सुन्दर थे; उनकी भुजाएं सुनहरे कंकणों तथा बाजूबन्दों से सुसज्जित थीं और उनके सिरों पर बहुमूल्य सुनहरे मुकुट थे। युद्ध भूमि में बिखरे हुए ये आभूषण अत्यन्त आकर्षक लग रहे थे और किसी भी वीर के मन को मोह सकते थे।
 
तात्पर्य
 ऐसा लगता है कि उन दिनों सैनिक सोने के आभूषण पहन कर तथा कवच और पगड़ी पहन कर युद्ध करने जाते थे और जब वे मरते थे तो ये सारी वस्तुएँ शत्रु-सेना द्वारा ले ली जाती थीं। नानाविध स्वर्णाभूषित वर्दियों के साथ युद्धभूमि में मरना वीरों के लिए सचमुच सुनहरा अवसर होता था।
 
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