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श्लोक 4.10.25  |
तत: खेऽदृश्यत गिरिर्निपेतु: सर्वतोदिशम् ।
गदापरिघनिस्त्रिंशमुसला: साश्मवर्षिण: ॥ २५ ॥ |
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शब्दार्थ |
तत:—तत्पश्चात्; खे—आकाश में; अदृश्यत—दिखाई पड़ा; गिरि:—पर्वत; निपेतु:—गिरा हुआ; सर्वत:-दिशम्—सभी दिशाओं से; गदा—गदा; परिघ—परिघ; निस्त्रिंश—तलवारें; मुसला:—मूसल; स-अश्म—पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़ों की; वर्षिण:—वर्षा के साथ ।. |
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अनुवाद |
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फिर आकाश में एक विशाल पर्वत दिखाई पड़ा और चारों ओर से बर्छे, गदा, तलवारें, परिघ तथा पत्थरों के विशाल खण्डों की वर्षा के साथ उपलवृष्टि होने लगी। |
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