श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 10: यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  4.10.3 
उत्तमस्त्वकृतोद्वाहो मृगयायां बलीयसा ।
हत: पुण्यजनेनाद्रौ तन्मातास्य गतिं गता ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
उत्तम:—उत्तम; तु—लेकिन; अकृत—बिना; उद्वाह:—ब्याह; मृगयायाम्—आखेट करने में; बलीयसा—अत्यन्त बलशाली; हत:—मारा गया; पुण्य-जनेन—एक यक्ष द्वारा; अद्रौ—हिमालय पर्वत पर; तत्—उसकी; माता—माता (सुरुचि); अस्य— अपने पुत्र को; गतिम्—पथ; गता—अनुसरण किया ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज का छोटा भाई उत्तम, जो अभी तक अनब्याहा था, एक बार आखेट करने गया और हिमालय पर्वत में एक शक्तिशाली यक्ष द्वारा मार डाला गया। उसकी माता सुरुचि ने भी अपने पुत्र के पथ का अनुसरण किया (अर्थात् मर गई)।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥