मुनय: ऊचु:—मुनियों ने कहा; औत्तानपाद—हे उत्तानपाद के पुत्र; भगवान्—भगवान्; तव—तुम्हारा; शार्ङ्ग-धन्वा—शार्ङ्ग नामक धनुष को धारण करनेवाला; देव:—देव, भगवान; क्षिणोतु—वध कर दे; अवनत—शरणागतों के; आर्ति—क्लेश; हर:—हरनेवाला; विपक्षान्—विपक्षियों, शत्रुओं; यत्—जिसका; नामधेयम्—पवित्र नाम; अभिधाय—लेकर; निशम्य— सुनकर; च—भी; अद्धा—शीघ्र ही; लोक:—लोग; अञ्जसा—पूर्णत:; तरति—पार करते हैं; दुस्तरम्—दुर्लंघ्य; अङ्ग—हे ध्रुव; मृत्युम्—मृत्यु को ।.
अनुवाद
सभी मुनियों ने कहा : हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव, अपने भक्तों के क्लेशों को हरनेवाले शार्ङ्गधन्वा भगवान् आपके भयानक शत्रुओं का संहार करें। भगवान् का पवित्र नाम भगवान् के ही समान शक्तिमान है, अत: भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन तथा श्रवण-मात्र से अनेक लोग भयानक मृत्यु से रक्षा पा सकते हैं। इस प्रकार भक्त बच जाता है।
तात्पर्य
जब ध्रुव महाराज यक्षों के मायावी करतबों से मन में अत्यन्त विक्षुब्ध थे, उसी समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके पास गये। भगवान् द्वारा भक्त की सदा से रक्षा होती आई है। उन्हीं की प्रेरणा से वे ध्रुव महाराज को प्रोत्साहित करने और आश्वस्त करने आये थे कि उन्हें कोई भय नहीं है, क्योंकि वे पूर्णत: भगवान् के शरणागत हैं। यदि भगवत्कृपा से कोई भक्त मृत्यु के समय केवल उनके पवित्र नाम हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे नामक महामंत्र का जप करता है, तो वह भवसागर से पार होकर वैकुण्ठ में प्रवेश करता है। उसे जन्म-मृत्यु के आवागमन में नहीं फँसना होता। चूँकि भगवान् के पवित्र नाम के जप से मृत्यु-सागर को पार किया जा सकता है, अत: ध्रुव महाराज निश्चित रूप से यक्षों की माया को जिस से उस समय उनका मन विक्षिप्त हो रहा था, पार कर सकने में समर्थ हुए।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चर्तुथ स्कन्ध के अन्तर्गत “यक्षों के साथ ध्रुव महाराज का युद्ध” नामक दसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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