ध्रुव:—ध्रुव महाराज; भ्रातृ-वधम्—अपने भाई की मृत्यु का; श्रुत्वा—समाचार सुनकर; कोप—क्रोध; अमर्ष—प्रतिशोध; शुचा—विलाप से; अर्पित:—पूरित होकर; जैत्रम्—विजयी; स्यन्दनम्—रथ पर; आस्थाय—चढ़ कर; गत:—गया; पुण्य-जन- आलयम्—यक्षों की पुरी में ।.
अनुवाद
जब ध्रुव महाराज ने यक्षों द्वारा हिमालय पर्वत में अपने भाई उत्तम के वध का समाचार सुना तो वे शोक तथा क्रोध से अभिभूत हो गये। वे रथ पर सवार हुए और यक्षों की पुरी अलकापुरी पर विजय करने के लिए निकल पड़े।
तात्पर्य
ध्रुव महाराज का क्रुद्ध होना, शोक से अभिभूत होना तथा शत्रुओं से ईर्ष्या करना—ये सारे कार्य एक भक्त के पद के प्रतिकूल नहीं थे। यह भ्रान्त धारणा है कि भक्त को क्रोध, ईर्ष्या या शोक से अभिभूत नहीं होना चाहिए। ध्रुव महाराज राजा थे, अत: जब उनके भाई को अकारण मार दिया गया तो उनका धर्म था कि हिमालय के यक्षों से वे बदला लेते।
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