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श्लोक 4.10.5  |
गत्वोदीचीं दिशं राजा रुद्रानुचरसेविताम् ।
ददर्श हिमवद्द्रोण्यां पुरीं गुह्यकसङ्कुलाम् ॥ ५ ॥ |
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शब्दार्थ |
गत्वा—जाकर; उदीचीम्—उत्तरी; दिशम्—दिशा; राजा—राजा ध्रुव ने; रुद्र-अनुचर—रुद्र अर्थात् शिव के अनुयायियों द्वारा; सेविताम्—बसी हुई; ददर्श—देखा; हिमवत्—हिमालय की; द्रोण्याम्—घाटी में; पुरीम्—नगरी; गुह्यक—प्रेत लोगों से; सङ्कुलाम्—पूर्ण ।. |
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अनुवाद |
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ध्रुव महाराज हिमालय प्रखण्ड की उत्तरी दिशा की ओर गये। उन्होंने एक घाटी में एक नगरी देखी जो शिव के अनुचर भूत-प्रेतों से भरी पड़ी थी। |
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तात्पर्य |
इस श्लोक में बताया गया है कि यक्ष बहुत कुछ शिव के भक्त हैं। इस तरह यक्षों को तिब्बती जन-जाति की तरह हिमालय की आदिम जाति माना जा सकता है। |
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