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श्लोक 4.10.8  |
स तानापततो वीर उग्रधन्वा महारथ: ।
एकैकं युगपत्सर्वानहन् बाणैस्त्रिभिस्त्रिभि: ॥ ८ ॥ |
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शब्दार्थ |
स:—वह (ध्रुव महाराज); तान्—उन सबों को; आपतत:—अपने ऊपर टूटते हुए; वीर:—वीर; उग्र-धन्वा—शक्तिशाली धनुर्धर; महा-रथ:—जो अनेक रथों से लड़ सके; एक-एकम्—एक-एक करके; युगपत्—एकसाथ, एक समय; सर्वान्—उन सबों को; अहन्—मार डाला; बाणै:—बाणों से; त्रिभि: त्रिभि:—तीन तीन करके ।. |
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अनुवाद |
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ध्रुव महाराज, जो महारथी तथा निश्चय ही महान् धनुर्धर भी थे, तुरन्त ही एकसाथ तीन-तीन बाण छोड़ करके उन्हें मारने लगे। |
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