श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  4.11.1 
मैत्रेय उवाच
निशम्य गदतामेवमृषीणां धनुषि ध्रुव: ।
सन्दधेऽस्त्रमुपस्पृश्य यन्नारायणनिर्मितम् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय मुनि ने आगे कहा; निशम्य—सुनकर; गदताम्—शब्द; एवम्—इस प्रकार; ऋषीणाम्—ऋषियों के; धनुषि—अपने धनुष पर; ध्रुव:—ध्रुव महाराज ने; सन्दधे—सन्धान किया; अस्त्रम्—बाण; उपस्पृश्य—जल छूकर; यत्—जो; नारायण—नारायण द्वारा; निर्मितम्—बनाया गया ।.
 
अनुवाद
 
 श्री मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, जब ध्रुव महाराज ने ऋषियों के प्रेरक शब्द सुने तो उन्होंने जल लेकर आचमन किया और भगवान् नारायण द्वारा निर्मित बाण लेकर उसे अपने धनुष पर चढ़ाया।
 
तात्पर्य
 ध्रुव महाराज को भगवान् नारायण द्वारा स्वयं निर्मित विशेष बाण प्रदान किया गया था, अत: उन्होंने यक्षों की माया को दूर करने के लिए उसे धनुष पर चढ़ाया। जैसाकि भगवद्गीता (७.१४) में कहा गया है—मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। बिना भगवान् नारायण के कोई भी माया के कर्म को जीत पाने में समर्थ नहीं है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी इस युग के लिए एक अच्छा अस्त्र प्रदान किया है, जैसाकि भागवत में कथित है—सांगोपांगास्त्र—इस युग में माया को भगाने का नारायणास्त्र हरे कृष्ण मंत्र का जप है, जिस पर भगवान् चैतन्य के पार्षदों—अद्वैत प्रभु, नित्यानन्द, गदाधर तथा श्रीवास—ने बल दिया है।
 
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