मनुष्य को चाहिए कि वह शरीर को आत्मा न माने और इस प्रकार पशुओं की भाँति अन्यों का वध न करे। भगवान् की भक्ति के पथ का अनुसरण करनेवाले साधु पुरुषों ने इसे विशेष रूप से वर्जित किया है।
तात्पर्य
साधूनां हृषीकेशानुवर्तिनाम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। आखिर साधु पुरुष कौन है? साधु पुरुष वह है, जो भगवान् हृषीकेश की सेवा के पथ का अनुसरण करता है। नारद-पञ्चरात्र में कहा गया है कि हृषीकेण हृषीकेशसेवनं भक्तिरुच्यते—अपनी इन्द्रियों द्वारा भगवान् की समुचित सेवा करने की विधि भक्ति कहलाती है। अत: जो व्यक्ति पहले से भगवान् की भक्ति में लगा है, वह इन्द्रिय-तृप्ति में आखिर क्यों प्रवृत्त हो? यहाँ पर मनु ने ध्रुव महाराज को उपदेश दिया है कि वे भगवान् के शुद्ध दास हैं, तो फिर वे वृथा पशुओं की तरह देहात्मबुद्धि में क्यों प्रवृत्त हो रहे हैं? एक पशु सोचता है कि दूसरा पशु उसका आहार है, अत: देहात्मबुद्धिवश एक पशु दूसरे पर आक्रमण करता है। मनुष्य को, और विशेष रूप से भक्त को ऐसा नहीं करना चाहिए। साधु सदृश किसी भक्त को पशुओं का वृथा वध नहीं करना चाहिए।
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