श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.11.11 
सर्वभूतात्मभावेन भूतावासं हरिं भवान् ।
आराध्याप दुराराध्यं विष्णोस्तत्परमं पदम् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
सर्व-भूत—समस्त जीवात्माओं में; आत्म—परमात्मा के ऊपर; भावेन—ध्यान से; भूत—समस्त संसार का; आवासम्—घर; हरिम्—भगवान् हरि; भवान्—आप; आराध्य—पूजा करके; आप—प्राप्त कर लिया है; दुराराध्यम्—जिनकी आराधना करना कठिन है; विष्णो:—भगवान् विष्णु के; तत्—उस; परमम्—परम; पदम्—स्थान या, स्थिति को ।.
 
अनुवाद
 
 वैकुण्ठलोक में हरि के धाम को प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है; किन्तु तुम इतने भाग्यशाली हो कि समस्त जीवात्माओं के परमधाम भगवान् की पूजा द्वारा तुम्हारा उस धाम को जाना निश्चित हो चुका है।
 
तात्पर्य
 समस्त जीवात्माओं के भौतिक शरीर तब तक विद्यमान नहीं रह सकते, जब तक उनमें आत्मा तथा परमात्मा का वास न हो। आत्मा परमात्मा पर निर्भर है, जो परमाणु में भी उपस्थित है। अत: प्रत्येक वस्तु के चाहे वह भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक, भगवान् पर निर्भर रहने के कारण भगवान् को भूतावास कहा गया है। जब मनु ने यह युद्ध बन्द करने के लिए कहा तो क्षत्रिय होने के नाते ध्रुव महाराज अपने पितामह मनु से तर्क कर सकते थे, किन्तु ऐसा होने पर भी उन्हें यह सूचित किया गया कि चूँकि प्रत्येक जीवात्मा भगवान् का धाम है, अत: मन्दिर तुल्य होने से किसी भी जीव की व्यर्थ हत्या की अनुमति नहीं दी जा सकती।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥