श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  4.11.12 
स त्वं हरेरनुध्यातस्तत्पुंसामपि सम्मत: ।
कथं त्ववद्यं कृतवाननुशिक्षन् सतां व्रतम् ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह व्यक्ति; त्वम्—तुम; हरे:—परमेश्वर द्वारा; अनुध्यात:—सदैव स्मरण किया जाकर; तत्—उसका; पुंसाम्—भक्तों द्वारा; अपि—भी; सम्मत:—पूज्य; कथम्—क्यों; तु—तब; अवद्यम्—निन्दनीय (कार्य); कृतवान्—किया गया; अनुशिक्षन्—दृष्टान्त उपस्थित करके; सताम्—साधु पुरुषों का; व्रतम्—व्रत ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के शुद्ध भक्त होने के कारण भगवान् सदैव तुम्हारे बारे में सोचते रहते हैं और तुम भी उनके सभी परम विश्वस्त भक्तों द्वारा मान्य हो। तुम्हारा जीवन आदर्श आचरण के निमित्त है। अत: मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तुमने ऐसा निन्दनीय कार्य कैसे किया।
 
तात्पर्य
 ध्रुव महाराज शुद्ध भक्त होने के कारण भगवान् का चिन्तन करने के अभ्यस्त थे। भगवान् भी बदले में उन शुद्ध भक्तों के लिए सोचते रहते हैं, जो चौबीसों घंटे उन्हीं का चिन्तन करते हैं। जिस प्रकार शुद्ध भक्त भगवान् के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं जानता, उसी प्रकार भगवान् भी अपने शुद्ध भक्तों को छोडक़र और कुछ नहीं जानते। स्वायंभुव मनु ने इस तथ्य की ओर ध्रुव का ध्यान आकर्षित किया—“तुम न केवल शुद्ध भक्त हो, वरन् भगवान् के समस्त शुद्ध भक्तों द्वारा मान्य हो। तुम्हें सदैव ऐसे आदर्श ढंग से कार्य करना चाहिए कि दूसरे तुमसे सीख ले सकें। ऐसी परिस्थिति में यह आश्चर्यजनक है कि तुमने इतने सारे निर्दोष यक्षों का वध कर डाला है।”
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥