श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  4.11.13 
तितिक्षया करुणया मैत्र्या चाखिलजन्तुषु ।
समत्वेन च सर्वात्मा भगवान् सम्प्रसीदति ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
तितिक्षया—सहनशीलता से; करुणया—दया से; मैत्र्या—मैत्री से; च—भी; अखिल—समस्त; जन्तुषु—जीवात्माओं के; समत्वेन—समता से; च—भी; सर्व-आत्मा—परमात्मा; भगवान्—भगवान्; सम्प्रसीदति—प्रसन्न हो जाता है ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् अपने भक्तों से तब अत्यधिक प्रसन्न होते हैं जब वे अन्य लोगों के साथ सहिष्णुता, दया, मैत्री तथा समता का बर्ताव करते हैं।
 
तात्पर्य
 भक्ति की सिद्धि की द्वितीयावस्था में विद्वान् भक्त का कर्तव्य है कि वह इस श्लोक के अनुसार कार्य करे। भक्तिमय जीवन की तीन अवस्थाएँ होती हैं। सबसे निचली अवस्था में भक्त का एकमात्र लगाव मन्दिर के देव से होता है, वह अत्यन्त भक्तिभाव से विधिपूर्वक भगवान् की पूजा करता है। द्वितीय अवस्था में भक्त को भगवान् से, अपने भक्त मित्रों से, निर्दोष व्यक्तियों से तथा ईर्ष्यालु पुरुषों से अपने सम्बन्धों का बोध हो जाता है। कभी-कभी ईर्ष्यालु व्यक्ति भक्तों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। यहाँ यह सलाह दी गई है कि सिद्धभक्त सहिष्णु हो और अज्ञानियों अथवा निर्दोष व्यक्तियों पर वह पूर्ण दया-भाव प्रदर्शित करे। उपदेशक भक्त को निर्दोष व्यक्तियों पर दया दिखानी पड़ती है, क्योंकि उन्हें वह भक्ति तक ऊँचे उठा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वाभाविक स्थिति में ईश्वर का चिरन्तनदास है। अत: भक्त का कार्य है कि प्रत्येक व्यक्ति में कृष्णचेतना जाग्रत करे। यह उसकी कृपा है। जहाँ तक समान भक्तों के साथ एक भक्त के व्यवहार का प्रश्न है, उसे उनके साथ मित्रता रखनी चाहिए। उसे प्रत्येक जीवात्मा को सामान्यत: परमेश्वर का अंश रूप देखना चाहिए। विभिन्न जीवात्माएँ विभिन्न वेश-भूषा में प्रकट होती हैं, किन्तु भगवद्गीता के उपदेशानुसार विद्वान् पुरुष समस्त जीवात्माओं को एकसमान देखता है। भगवान् को भक्तों का यह आचरण अत्यन्त प्रिय है। इसीलिए कहा जाता है कि साधु पुरुष सदैव सहिष्णु और दयालु होता है, वह प्रत्येक जीव का मित्र होता है, वह किसी का भी शत्रु नहीं होता और वह शान्त रहता है। ये ही भक्त के कतिपय सद्गुण हैं।
 
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