श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  4.11.14 
सम्प्रसन्ने भगवति पुरुष: प्राकृतैर्गुणै: ।
विमुक्तो जीवनिर्मुक्तो ब्रह्म निर्वाणमृच्छति ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
सम्प्रसन्ने—प्रसन्न होने पर; भगवति—भगवान् के; पुरुष:—पुरुष; प्राकृतै:—भौतिक; गुणै:—प्रकृति के गुणों से; विमुक्त:— मुक्त हुए; जीव-निर्मुक्त:—सूक्ष्म शरीर से भी मुक्त; ब्रह्म—अनन्त; निर्वाणम्—आत्म-आनन्द; ऋच्छति—प्राप्त करता है ।.
 
अनुवाद
 
 जो मनुष्य अपने जीवनकाल में भगवान् को सचमुच प्रसन्न कर लेता है, वह स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक परिस्थितियों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार समस्त भौतिक गुणों से छूटकर वह अनन्त आत्म-आनन्द प्राप्त करता है।
 
तात्पर्य
 पिछले श्लोक में बताया गया है कि मनुष्य को चाहिए कि समस्त जीवात्माओं से सहिष्णुता, दया, मित्रता तथा समता का व्यवहार करे। ऐसे व्यवहार से वह भगवान् को प्रसन्न कर लेता है और उनके प्रसन्न होते ही भक्त समस्त भौतिक दशाओं से तुरन्त मुक्त हो जाता है। भगवद्गीता में भगवान् ने भी इसकी पुष्टि की है, “जो निष्ठापूर्वक तथा गम्भीरतापूर्वक मेरी सेवा करता है, वह तुरन्त ही दिव्य अवस्था को प्राप्त होता है, जहाँ उसे अपार आत्मसुख प्राप्त हो सकता है।” इस जगत में आनन्दमय जीवन की प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति कठिन संघर्ष कर रहा है। दुर्भाग्यवश लोग इसे प्राप्त करना नहीं जानते। नास्तिक जन ईश्वर में विश्वास नहीं करते और निश्चित ही वे उन्हें प्रसन्न नहीं करते हैं। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि भगवान् को प्रसन्न करने पर मनुष्य को आत्म-पद प्राप्त हो सकता है, जहाँ वह अपार आनन्दमय जीवन का भोग करता है। भौतिक जगत से मुक्त होने का अर्थ है भौतिक प्रकृति के प्रभाव से मुक्त होना।

इस श्लोक में प्रयुक्त सम्प्रसन्ने शब्द का अर्थ है, “प्रसन्न होने पर।” मनुष्य को ऐसा कार्य करना चाहिए कि भगवान् इस कार्य से प्रसन्न हों; उसे स्वयं प्रसन्न नहीं होना है। वस्तुत: जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तो भक्त स्वत: तुष्ट हो जाता है। भक्तियोग प्रक्रिया का यही रहस्य है। भक्तियोग से बाहर प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको तुष्ट करने में लगा है। कोई भी भगवान् को प्रसन्न करने का प्रयास नहीं करता। कर्मीं स्थूल रूप से अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहते हैं, किन्तु जो ज्ञानी हैं, वे भी सूक्ष्म रूप से अपने आपको ही सन्तुष्ट करने में लगे रहते हैं। कर्मी अपने आपको इन्दियतृप्ति द्वारा तथा ज्ञानी सूक्ष्म कर्मों या मानसिक चिन्तन द्वारा, तथा स्वयं को ईश्वर सोचकर तुष्ट करते हैं। योगी भी वह सोचकर अपने को तुष्ट करना चाहते हैं कि वे तरह-तरह की योग-सिद्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु केवल भक्त ही भगवान् को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। किन्तु भक्त द्वारा आत्म-साक्षात्कार की विधि कर्मियों तथा ज्ञानियों योगियों की विधियों से सर्वथा भिन्न होती है। जहाँ प्रत्येक प्राणी आत्मतुष्टि में लगा हुआ है, वहीं पर भक्त केवल भगवान् को तुष्ट करने का प्रयत्न करता है। भक्ति की विधि अन्यों से सर्वथा भिन्न है; भक्त अपनी इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाकर भगवान् को प्रसन्न करने के कारण तुरन्त दिव्य पद को प्राप्त होता है और असीम आनन्दमय जीवन भोगता है।

 
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