भूतै: पञ्चभिरारब्धैर्योषित्पुरुष एव हि ।
तयोर्व्यवायात्सम्भूतिर्योषित्पुरुषयोरिह ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
भूतै:—भौतिक तत्त्वों द्वारा; पञ्चभि:—पाँच; आरब्धै:—प्रारम्भ की गई; योषित्—स्त्री; पुरुष:—पुरुष; एव—की तरह; हि— निश्चय ही; तयो:—उनके; व्यवायात्—विषयी जीवन द्वारा; सम्भूति:—पुन: सृष्टि; योषित्—स्त्रियों की; पुरुषयो:—तथा पुरुषों की; इह—इस जगत में ।.
अनुवाद
भौतिक जगत की सृष्टि पाँच तत्त्वों से प्रारम्भ होती है और इस तरह प्रत्येक वस्तु, जिसमें पुरुष अथवा स्त्री का शरीर भी सम्मिलित है, इन तत्त्वों से उत्पन्न होती है। पुरुष तथा स्त्री के विषयी जीवन (समागम) से इस जगत में पुरुषों तथा स्त्रियों की संख्या में और वृद्धि होती है।
तात्पर्य
जब स्वायंभुव मनु ने देखा कि ध्रुव महाराज वैष्णव दर्शन को समझते हुए भी अपने भाई की मृत्यु के कारण असंतुष्ट हैं, तो उन्होंने यह व्याख्या की कि किस प्रकार भौतिक प्रकृति के पाँच तत्त्वों से इस भौतिक देह की रचना होती है। भगवद्गीता में इसकी पुष्टि हुई है—प्रकृते: क्रियमाणानि—प्राकृतिक गुणों के द्वारा ही प्रत्येक वस्तु का सृजन, पालन और संहार होता है। निस्सन्देह, इन सबके पीछे भगवान् का निर्देश रहता है। इसकी भी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है (मयाध्यक्षेण)। नवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं; “मेरी अध्यक्षता में भौतिक प्रकृति क्रियाशील रहती है।” स्वायंभुव मनु ध्रुव महाराज को यह बता देना चाह रहे थे कि उनके भाई के शरीर की मृत्यु के लिए वास्तव में यक्ष दोषी नहीं थे; वह तो भौतिक प्रकृति का कार्य था। भगवान् में अनेक प्रकार की शक्तियाँ होती हैं और ये अनेक प्रकार से सूक्ष्म तथा स्थूल रूप में कार्य करती हैं।
ऐसी ही प्रबल शक्तियों से इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की जाती है यद्यपि स्थूल रूप में इसमें पाँच तत्त्वों क्षिति, जल, पावक, गगन तथा वायु के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखता। इसी प्रकार समस्त योनियाँ, चाहे वे मनुष्य हों अथवा देवता, पशु हों या पक्षी, उनकी देहें भी इन्हीं पाँच तत्त्वों से उत्पन्न की जाती हैं और फिर मैथुन द्वारा और अधिक जीवों में बढ़ती जाती हैं। यही सृष्टि, पालन तथा संहार का विधान है। इस विधि में भौतिक प्रकृति की तरंगों से किसी को विचलित नहीं होना चाहिए। अप्रत्यक्ष रीति से ध्रुव महाराज को उपदेश दिया जा रहा था कि वे अपने भाई की मृत्यु से दुखी न हों, क्योंकि शरीर के साथ हमारा सम्बन्ध सर्वथा भौतिक है। वास्तविक स्व अर्थात् आत्मा का न तो विनाश होता है, न ही किसी के द्वारा उसका वध होता है।
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