निमित्त-मात्रम्—दूरस्थ कारण; तत्र—तब; आसीत्—था; निर्गुण:—कल्मषरहित; पुरुष-ऋषभ:—परम पुरुष; व्यक्त—प्रकट; अव्यक्तम्—अप्रकट; इदम्—यह; विश्वम्—जगत; यत्र—जहाँ; भ्रमति—घूमता है; लोह-वत्—लोहे के समान ।.
अनुवाद
हे ध्रुव, भगवान् प्रकृति के गुणों के द्वारा कलुषित नहीं होते। वे इस भौतिक दृश्य जगत की उत्पति के दूरस्थ कारण (निमित्त) हैं। उनकी प्रेरणा से अन्य अनेक कारण तथा कार्य उत्पन्न होते हैं और तब यह सारा ब्रह्माण्ड उसी प्रकार घूमता है जैसे कि लोहा चुम्बक की संचित शक्ति से घूमता है।
तात्पर्य
इस श्लोक में यह बताया गया है कि इस जगत के भीतर भगवान् की बहिरंगा शक्ति किस प्रकार कार्यशील होती है। सब कुछ परमेश्वर की शक्ति से घटित होता है। नास्तिकवादी विचारक, जो भगवान् को सृष्टि का आदि कारण नहीं मानते, सोचते हैं कि यह जगत विभिन्न भौतिक तत्त्वों की क्रिया-प्रतिक्रियावश चालित होता है। तत्त्वों की अन्योन्य क्रिया का सरल उदाहरण हमें तब प्राप्त होता है जब हम सोडा तथा अम्ल को मिलाते हैं, तो झाग उत्पन्न होता है। किन्तु इस प्रकार रसायनों की प्रतिक्रिया से जीवन तो उत्पन्न नहीं किया जा सकता! जीवन की चौरासी लाख योनियाँ हैं जिनकी इच्छाएँ तथा कार्य भिन्न-भिन्न हैं। केवल रासायनिक प्रतिक्रिया के आधार पर कार्यशील भौतिक शक्ति की व्याख्या नहीं की जा सकती। इस प्रसंग में कुम्हार तथा उसके चाक का उदाहरण उपयुक्त होगा। जब चाक घूमता है, तो अनेक प्रकार के मिट्टी के पात्र निर्मित होते हैं। इन पात्रों के अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु मूल कारण तो कुम्हार है, जो चक्र को शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति उसकी अध्यक्षता से आती है। भगवद्गीता में इसी विचार की इस प्रकार व्याख्या की गई है—समस्त कार्य तथा कारण के पीछे भगवान् कृष्ण हैं। कृष्ण का कथन है कि उनकी शक्ति पर ही सब कुछ आश्रित है; फिर भी वे सर्वत्र नहीं हैं। मिट्टी का पात्र भौतिक शक्ति के किन्हीं कार्य-कारण की अवस्थाओं के अन्तर्गत बनता है। किन्तु कुम्हार तो पात्र में नहीं होता। इसी प्रकार, भौतिक उत्पत्ति भगवान् द्वारा की जाती है, किन्तु वे सर्वथा पृथक् रहते हैं। जैसाकि वेदों का कथन है—उन्होंने मात्र उसके ऊपर नजर डाली और द्रव्य का विक्षोभ तुरन्त चालू हो गया।
भगवद्गीता में यह भी कहा गया है कि भगवान् भौतिक शक्ति को अपने अंश जीवों से संपृक्त कर देते हैं जिससे विभिन्न रूपों तथा विभिन्न कार्यों का सूत्रपात होता है। जीव-आत्मा की विभिन्न इच्छाओं तथा कर्मों के कारण विभिन्न योनियों में भिन्न-भिन्न शरीर उत्पन्न होते हैं। डार्विन के सिद्धान्त में जीव- आत्मा को स्वीकार नहीं किया जाता है। अत: उनके विकास की व्याख्या अधूरी है। तीनों गुणों के कार्य-कारण के फलस्वरूप विश्व में अनेक घटनाएँ घटती हैं, किन्तु उनका आदि कारण स्रष्टा या भगवान् ही हैं, जिन्हें यहाँ पर निमित्त-मात्रम् अर्थात् दूरस्थ कारण कहा गया है। वे अपनी शक्ति को— चक्र को—मात्र धक्का देते हैं। मायावादी चिन्तकों के अनुसार परब्रह्म ने अपने आपको अनेक रूपों में परिवर्तित कर रखा है, किन्तु तथ्य यह नहीं है। वे भौतिक गुणों के कार्य-कारण से सदा परे रहते हैं यद्यपि वे समस्त कारणों के कारण हैं। अत: ब्रह्म-संहिता (५.१) में ब्रह्मा कहते हैं— ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:।
अनादिरादिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणम् ॥
वैसे तो अनेक कार्य-कारण हैं, किन्तु आदि कारण तो कृष्ण ही हैं।
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