श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  4.11.18 
स खल्विदं भगवान् कालशक्त्या
गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्य: ।
करोत्यकर्तैव निहन्त्यहन्ता
चेष्टा विभूम्न: खलु दुर्विभाव्या ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; खलु—फिर भी; इदम्—यह (ब्रह्माण्ड); भगवान्—भगवान्; काल—समय की; शक्त्या—शक्ति से; गुण प्रवाहेण—गुणों की अन्योन्य क्रिया से; विभक्त—विभाजित; वीर्य:—(जिसकी) शक्तियाँ; करोति—प्रभाव डालता है; अकर्ता—न करनेवाला; एव—यद्यपि; निहन्ति—मारता है; अहन्ता—न मारनेवाला; चेष्टा—शक्ति; विभूम्न:—भगवान् की; खलु—निश्चय ही; दुर्विभाव्या—अचिन्तनीय ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् अपनी अचिन्त्य काल-रूप परम शक्ति से प्रकृति के तीनों गुणों में अन्योन्य क्रिया उत्पन्न करते हैं जिससे नाना प्रकार की शक्तियाँ प्रकट होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कार्यशील हैं, किन्तु वे कर्ता नहीं हैं। वे संहार तो करते हैं, किन्तु संहारकर्ता नहीं हैं। अत: यह माना जाता है कि केवल उनकी अचिन्तनीय शक्ति से सब कुछ घट रहा है।
 
तात्पर्य
 दुर्विभाव्या शब्द का अर्थ “हमारे लघु मस्तिष्क द्वारा अकल्पनीय” और विभक्तवीर्य: का अर्थ “विभिन्न शक्तियों में विभाजित” है। भौतिक जगत में सृजनात्मक शक्तियों के प्राकट्य की यह सही विवेचना है। एक उदाहरण के द्वारा हम ईश्वर की कृपा को ठीक से समझ सकते हैं—शासन-सत्ता को दयालु होना चाहिए, किन्तु कभी-कभी शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस लगानी पड़ती है और जो विद्रोह करते हैं उन्हें दण्ड दिया जाता है। इसी प्रकार भगवान् सदैव दयालु हैं तथा दिव्य गुणों से युक्त हैं, किन्तु कुछ जीव कृष्ण से अपने सम्बन्ध को भूल कर भौतिक प्रकृति पर अपना प्रभुत्व जताना चाहते हैं। अपने प्रयत्न के फलस्वरूप वे अनेक भौतिक अन्तक्रियाओं में फँस जाते हैं। किन्तु यह तर्क देना ठीक नहीं होगा कि शक्ति भगवान् से प्रकट होती है, इसीलिए वही कर्ता हैं। पिछले श्लोक में निमित्तमात्रम् शब्द इंगित करता है कि भगवान् इस भौतिक जगत के कार्य-करण से सर्वथा पृथक् रहते हैं। तो फिर सब कुछ कैसे चल रहा है? इसके लिए दुर्विभाव्य (अकल्पनीय) शब्द प्रयुक्त हुआ है। हमारे छोटे से मस्तिष्क में इतनी शक्ति कहाँ कि हम यह सब समझ सकें। जब तक भगवान् की शक्ति को अचिन्त्य अथवा अकल्पनीय नहीं मान लिया जाता, तब तक किसी तरह की उन्नति कर पाना सम्भव नहीं है। जो शक्तियाँ कार्य करती हैं, वे श्रीभगवान् द्वारा ही चालू की जाती हैं, किन्तु वे उनके कार्य-कारण से सदैव पृथक् (भिन्न) रहते हैं। भौतिक प्रकृति की अन्योन्य क्रिया से उत्पन्न नाना प्रकार की शक्तियाँ नानाविध योनियों तथा फलस्वरूप मिलने वाले सुख एवं दुख को उत्पन्न करती हैं।

भगवान् जिस प्रकार से कर्म करते हैं उसकी सुन्दर विवेचना विष्णु पुराण में मिलती है—अग्नि एक स्थान पर रहती है, किन्तु उसकी गर्मी तथा प्रकाश भिन्न-भिन्न प्रकार से कार्य करते रहते हैं। दूसरा उदाहरण बिजली-घर का है, जो एक स्थान पर स्थित होता है, किन्तु उसकी शक्ति से नाना प्रकार की मशीनें चलती हैं। उत्पादन कभी भी शक्ति के मूल स्रोत से एकरूप नहीं होता, किन्तु शक्ति का मूल स्रोत मुख्य कारण होने से उत्पादन से एकरूप है और साथ ही उससे पृथक् भी। अत: ज्ञान का सही मार्ग भगवान् चैतन्य का दर्शन अचिन्त्य-भेदाभेद तत्त्व है। भौतिक जगत में भगवान् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव इन तीन रूपों में अवतरित होते हैं और ये प्रकृति के तीनों गुणों का भार सम्हालते हैं। ब्रह्मा का अवतार लेकर वे सृष्टि करते हैं, विष्णु रूप में वे भरण करते हैं और शिव रूप में संहार भी करते हैं। किन्तु इन तीनों के मूल स्रोत गर्भोदकशायी विष्णु भौतिक प्रकृति के कार्य-कारण से अपने को पृथक् रखते हैं।

 
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