श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  4.11.2 
सन्धीयमान एतस्मिन्माया गुह्यकनिर्मिता: ।
क्षिप्रं विनेशुर्विदुर क्लेशा ज्ञानोदये यथा ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
सन्धीयमाने—धनुष पर रखते हुए; एतस्मिन्—इस नारायणास्त्र को; माया:—माया, मोह; गुह्यक-निर्मिता:—यक्षों द्वारा निर्मित; क्षिप्रम्—शीघ्र; विनेशु:—नष्ट हो गये; विदुर—हे विदुर; क्लेशा:—मोहजनित कष्ट तथा आनन्द; ज्ञान-उदये—ज्ञान के उदय होने पर; यथा—जिस प्रकार ।.
 
अनुवाद
 
 ज्योंही ध्रुव महाराज ने अपने धनुष पर नारायणास्त्र को चढ़ाया, त्योंही यक्षों द्वारा रची गई सारी माया उसी प्रकार तुरन्त दूर हो गई जिस प्रकार कि आत्मज्ञान होने पर समस्त भौतिक क्लेश तथा सुख विनष्ट हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 कृष्ण सूर्य की भाँति हैं और माया अंधकार के तुल्य है। अंधकार का अर्थ है प्रकाश का अभाव और माया का अर्थ है कृष्ण-चेतना का अभाव। कृष्ण-चेतना तथा माया सदैव पास-पास रहती हैं। ज्योंही कृष्ण-चेतना जाग्रत हो जाती है, समस्त मायाजनित भौतिक कष्ट तथा सुख दूर हो जाते हैं। मायामेतां तरन्ति ते—महामन्त्र का निरन्तर जप माया की शक्ति से हमें सदैव दूर रखता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥