न वै स्वपक्षोऽस्य विपक्ष एव वा
परस्य मृत्योर्विशत: समं प्रजा: ।
तं धावमानमनुधावन्त्यनीशा
यथा रजांस्यनिलं भूतसङ्घा: ॥ २० ॥
शब्दार्थ
न—नहीं; वै—फिर भी; स्व-पक्ष:—मित्र-पक्ष; अस्य—भगवान् का; विपक्ष:—शत्रु; एव—निश्चय ही; वा—अथवा; परस्य— परमेश्वर का; मृत्यो:—काल रूप में; विशत:—प्रवेश करता; समम्—समान रूप से; प्रजा:—जीवात्माएँ; तम्—उसको; धावमानम्—चलायमान; अनुधावन्ति—अनुसरण करते हैं; अनीशा:—पराश्रित जीवात्माएँ; यथा—जिस तरह; रजांसि—धूल के कण; अनिलम्—वायु; भूत-सङ्घा:—अन्य भौतिक तत्त्व ।.
अनुवाद
अपने शाश्वत काल रूप में श्रीभगवान् इस भौतिक जगत में विद्यमान हैं और सबों के प्रति समभाव रखनेवाले हैं। न तो उनका कोई मित्र है, न शत्रु। काल की परिधि में हर कोई अपने कर्मों का फल भोगता है। जिस प्रकार वायु के चलने पर क्षुद्र धूल के कण हवा में उड़ते हैं, उसी प्रकार अपने कर्म के अनुसार मनुष्य भौतिक जीवन का सुख भोगता या कष्ट उठाता है।
तात्पर्य
यद्यपि भगवान् समस्त कारणों के आदि कारण हैं, किन्तु किसी के भौतिक सुख या दुख के लिए वे जिम्मेदार नहीं रहते। परमेश्वर ऐसा पक्षपात नहीं करता। अल्पज्ञानी परमेश्वर पर दोष लगाते हैं कि वह पक्षपात करता है, जिससे कुछ लोग इस भौतिक संसार में सुख भोगते हैं और कुछ कष्ट उठाते हैं। किन्तु इस श्लोक से स्पष्ट है कि परमेश्वर ऐसा पक्षपात नहीं करते। हाँ जीवात्माएँ स्वतंत्र नहीं हैं। ज्योंही वे अपने को परम नियन्ता से स्वतंत्र घोषित कर देती हैं, त्योंही वे इस संसार में अपना भाग्य आजमाने के लिए छोड़ दी जाती हैं। जब यह जगत ऐसी पथभ्रष्ट जीवात्माओं के लिए उत्पन्न किया जाता है, तो वे अपने-अपने कर्म उत्पन्न करती हैं और काल का लाभ उठाकर अपना भाग्य या दुर्भाग्य बनाती हैं। प्रत्येक प्राणी उत्पन्न होता है, उसका पालन होता है और अन्त में मारा जाता है। जहाँ तक इन तीनों बातों का सम्बन्ध है, ईश्वर सबों पर समभाव रखते हैं। अपने-अपने कर्म के अनुसार ही मनुष्य सुख या दुख पाता है। जीवात्मा का उच्च या निम्न पद, तथा उसके सुख तथा दुख उसके अपने कर्मों के फलस्वरूप होते हैं। इस प्रसंग में अनीशा: शब्द अत्यन्त उपयुक्त है, जिसका अर्थ है, “अपने अपने कर्मों पर निर्भर।” यहाँ पर उदाहरण दिया गया है कि सरकार हर नागरिक को सरकारी कार्य तथा प्रबन्ध के लिए सुविधाएँ प्रदान करती है, किन्तु मनुष्य अपनी इच्छा से ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है, जिससे वह विभिन्न प्रकार की चेतनाओं में रहने के लिए बाध्य हो जाता है। इस श्लोक में उदाहरण दिया गया है कि जब वायु बहती है, तो धूल के कण वायु में तैरने लगते हैं, क्रमश: बिजली चमकती है फिर घनघोर वर्षा होती है और इस प्रकार वर्षाऋतु के कारण जंगल में विविधता उत्पन्न हो जाती है। ईश्वर अत्यन्त दयालु है—वह सबों को समान अवसर प्रदान करता है, किन्तु मनुष्य अपने कर्मफल के अनुसार इस भौतिक जगत में सुख या दुख भोगता है।
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