श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  4.11.21 
आयुषोऽपचयं जन्तोस्तथैवोपचयं विभु: ।
उभाभ्यां रहित: स्वस्थो दु:स्थस्य विदधात्यसौ ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
आयुष:—जीवन अवधि का; अपचयम्—ह्रास; जन्तो:—जीवात्माओं का; तथा—उसी प्रकार; एव—भी; उपचयम्—वृद्धि; विभु:—भगवान्; उभाभ्याम्—उन दोनों से; रहित:—रहित, मुक्त; स्व-स्थ:—अपनी दिव्य स्थिति में सदैव स्थित; दु:स्थस्य— कर्म के नियम के अन्तर्गत जीवात्मा का; विदधाति—देता है; असौ—वह ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् विष्णु सर्वशक्तिमान हैं और वे प्रत्येक को सकाम कर्मों का फल देते हैं। इस प्रकार जीवात्मा चाहे अल्पजीवी हो या दीर्घजीवी, भगवान् तो सदा ही दिव्य पद पर रहते हैं और उनकी जीवन-अवधि के घटने या बढऩे का कोई प्रश्न नहीं उठता।
 
तात्पर्य
 भौतिक जगत में एक मच्छर तथा ब्रह्मा—ये दोनों जीवात्माएँ हैं, दोनों ही क्षुद्र स्फुलिंग हैं और परमेश्वर के अंश हैं। अपने-अपने कर्मफल के अनुसार परमेश्वर द्वारा मच्छर को अल्पायु मिलती है और ब्रह्मा को दीर्घायु। किन्तु ब्रह्म-संहिता में कहा गया है—कर्माणि निर्दहति—भगवान् भक्तों के बन्धनों को घटाता है। यही बात भगवद्गीता में भी कही गई है—यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र—केवल परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए कर्म किया जाय, अन्यथा मनुष्य कर्म के कार्य-कारण से बँध जाता है। कर्म के नियमों के अनुसार जीवात्मा शाश्वत काल के शासन के अधीन होकर विश्व-भर में विचरण करता है और कभी वह मच्छर बन जाता है, तो कभी ब्रह्मा। बुद्धिमान मनुष्य के लिए यह व्यापार लाभप्रद नहीं है। भगवद्गीता (९.२५) में जीवात्माओं को आगाह किया गया है—यान्ति देवव्रता देवान्—जो देवताओं की पूजा में अनुरक्त हैं, वे देवलोक जाते हैं और जो पितरों में अनुरक्त हैं, वे पितृलोक में जाते हैं। जो सांसारिक कार्यों में रहना चाहते हैं, वे उसी में लगे रहते हैं। किन्तु जो व्यक्ति भक्ति करते हैं, वे भगवान् के धाम को जाते हैं, जहाँ न तो जन्म है, न मृत्यु, न ही कर्म के नियमानुसार विभिन्न योनियाँ हैं। जीवात्मा का सबसे बड़ा हित इसी में है कि वह भगवद्भक्ति में लगा रहे और भगवान् के परम धाम को जाए। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर का उपदेश है, “मित्र! तुम काल की तरंगों में बहे जा रहे हो। तुम यह समझने का प्रयास करो कि तुम भगवान् के चिरन्तन दास हो। तब सब कुछ रुक जायेगा और तुम सदा सुखी रहोगे।”
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥