कुछ लोग विभिन्न योनियों तथा उनके सुख-दुख में पाये जाने वाले अन्तर को कर्म-फल बताते हैं। कुछ इसे प्रकृति के कारण, अन्य लोग काल तथा भाग्य के कारण और शेष इच्छाओं के कारण बताते हैं।
तात्पर्य
दार्शनिक कई प्रकार के हैं—मीमांसक, नास्तिक, ज्योतिषी, कामुकतावादी तथा चिन्तक। वास्तविक निष्कर्ष यह है कि हमारे कर्म ही हमें इस जगत में विभिन्न योनियों में बाँध देते हैं। ये योनियाँ किस प्रकार बनीं, इसकी विवेचना वेदों में मिलती है। यह जीवात्मा की इच्छा के कारण है। जीवात्मा कोई जड़ पत्थर तो है नहीं, उसकी तरह-तरह की इच्छाएँ अथवा काम होते हैं। वेदों का कथन है—कामोऽकर्षीत्। जीवात्माएँ मूलत: भगवान् के अंश हैं, जिस प्रकार अग्नि की चिनगारियाँ होती हैं, किन्तु वे जीवात्माएं प्रकृति पर विजय की कामना द्वारा आकर्षित होकर इस भौतिक जगत में नीचे गिर आई हैं। यह तथ्य है। प्रत्येक जीवात्मा यथाशक्ति भौतिक स्रोतों पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करती है।
इस काम अथवा इच्छा को विनष्ट नहीं किया जा सकता। कुछ चिन्तकों का कथन है कि यदि कोई अपनी इच्छाएँ त्याग दे तो पुन: मुक्त हो जाता है। किन्तु इच्छाओं को पूरी तरह छोड़ पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि इच्छा तो जीवात्मा का लक्षण है। यदि इच्छा न हो तो जीवात्मा पत्थर के समान जड़ रहे। अत: श्रील नरोत्तमदास ठाकुर सलाह देते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छा को भगवान् की सेवा की ओर मोड़ दे। तब इच्छा शुद्ध हो जाती है। जब इच्छा शुद्ध हो जाती है, तो मनुष्य समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि विभिन्न विचारकों द्वारा प्रस्तुत योनियों तथा उनके सुख-दुख की व्याख्या करनेवाले सभी सिद्धान्त अपूर्ण हैं। वास्तविक व्याख्या तो यह है कि हम सभी भगवान् के नित्य दास हैं और ज्योंही हम इस भौतिक संसार सम्बन्ध को भूल जाते हैं त्योंही हम इस जगत में फेंक दिये जाते हैं, जहाँ हम विभिन्न कर्मों के द्वारा सुख या दुख भोगते हैं। हम इस भौतिक संसार में इच्छा द्वारा आकृष्ट होते हैं, किन्तु इस इच्छा को शुद्ध करके भगवान् की भक्ति में लगाना होगा। तब इस ब्रह्माण्ड में विभिन्न रूपों तथा अवस्थाओं में हमारा मटकना बन्द हो जाएगा।
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