श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  4.11.23 
अव्यक्तस्याप्रमेयस्य नानाशक्त्युदयस्य च ।
न वै चिकीर्षितं तात को वेदाथ स्वसम्भवम् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
अव्यक्तस्य—अप्रकट का; अप्रमेयस्य—अप्रमेय का; नाना—अनेक; शक्ति—शक्तियाँ; उदयस्य—प्रकट करनेवाले का; च— भी; न—कभी नहीं; वै—निश्चय ही; चिकीर्षितम्—योजना; तात—हे बालक; क:—कौन; वेद—जान सकता है; अथ— अत:; स्व—अपनी; सम्भवम्—उत्पत्ति ।.
 
अनुवाद
 
 परम सत्य अर्थात् सत्त्व कभी भी अपूर्ण ऐन्द्रिय प्रयास द्वारा जानने का विषय नहीं रहा है, न ही उसका प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। वह पूर्ण भौतिक शक्ति सदृश नाना प्रकार की शक्तियों का स्वामी है और उसकी योजना या कार्यों को कोई भी नहीं समझ सकता। अत: निष्कर्ष यह निकलता है कि वे समस्त कारणों के आदि कारणस्वरूप हैं, अत: उन्हें कल्पना द्वारा नहीं जाना जा सकता।
 
तात्पर्य
 यहाँ यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्योंकि अनेक प्रकार के चिन्तक भिन्न-भिन्न विधियों से सिद्धान्त बनाते हैं, तो उनमें से कौन सही है? इसका उत्तर यह है कि परम सत्य या सत्त्व कभी भी प्रत्यक्ष अनुभव या कल्पना का विषय नहीं रहा है। मनोधर्मी चिन्तक को कूप-मण्डूक कहा जा सकता है। कथा इस प्रकार है कि एक तीन फुट गहरे कूप में रहने वाले मण्डूक (मेंढक) ने अपने कुएं के ज्ञान के आधार पर अटलांटिक सागर की लम्बाई-चौड़ाई जाननी चाही। लेकिन यह उसके लिए दुष्कर था। कोई व्यक्ति भले ही कितना बड़ा शिक्षाविद्, विद्वान् या प्रोफेसर क्यों न हो, किन्तु सीमित इन्द्रियों के कारण वह परम सत्य की न तो कल्पना कर सकता है और न जान सकता है। समस्त कारणों के कारण परम सत्य को स्वयं परम सत्य से ही जाना जा सकता है। जब रात्रि में सूर्य दृष्टिगोचर नहीं होता या दिन में बादलों से ढका रहता है, तो उसे न तो शारीरिक, न ही मानसिक शक्ति अथवा वैज्ञानिक उपकरणों से उघाड़ा जा सकता है, भले ही सूर्य आकाश में हो। कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसने ऐसी टार्च खोज निकाली है, जिसे रात्रि में छत पर जाकर आकाश की ओर अभिमुख करने पर सूर्य दिखलाई पड़ सके। न तो ऐसी टार्च है और न ही इसकी सम्भावना है।

इस श्लोक में आया हुआ अव्यक्त शब्द सूचित करता है कि परम सत्य को किसी प्रकार के तथाकथित वैज्ञानिक ज्ञान के उन्नयनसमुन्नत ज्ञान से प्रकट नहीं किया जा सकता। सत्त्व प्रत्यक्ष अनुभव का विषय नहीं है। परम सत्य को वैसे ही जाना जा सकता है, जिस प्रकार बादलों से ढक़ा हुआ अथवा रात्रि से आच्छादित सूर्य को, क्योंकि जब प्रात:काल सूर्य अपने आप प्रकट होता है, तो हर प्राणी उसे देख सकता है, संसार को देख सकता है और अपने आपको देख सकता है। आत्म-साक्षात्कार का यह ज्ञान आत्मतत्त्व कहलाता है। किन्तु जब तक मनुष्य आत्मतत्त्व को नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक वह उसी अंधकार में रहता है, जिसमें वह जन्मा था। ऐसी परिस्थिति में भगवान् की योजना को कोई भी नहीं समझ सकता। भगवान् अनेक शक्तियों से सम्पन्न हैं जैसाकि वैदिक साहित्य में कहा गया है (परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते)। वे शाश्वत कालशक्ति से समन्वित हैं। वे न केवल भौतिक शक्ति से सम्पन्न हैं, जिसे हम देखते और अनुभव करते हैं, वरन् वे ऐसी अनेक गुप्त शक्तियों से युक्त हैं, जिन्हें समय आने पर वे ही प्रकट कर सकते हैं। भौतिक विज्ञानी विभिन्न शक्तियों के आंशिक ज्ञान का अध्ययन कर सकता है। वह किसी एक शक्ति को अपने सीमित ज्ञान से समझने का प्रयास कर सकता है, किन्तु फिर भी भौतिक विज्ञान के बल पर परम सत्य को समझ पाना सम्भव नहीं हो पाता। कोई भी भौतिक विज्ञानी पहले से यह नहीं बता सकता कि भविष्य में क्या होनेवाला है। किन्तु भक्तियोग तथाकथित वैज्ञानिक ज्ञान की प्रगति से सर्वथा भिन्न है। भक्त भगवान् के समक्ष पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है और वे अपनी अहैतुकी कृपा से स्वयं को प्रकट करते हैं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है—ददामि बुद्धियोगं तम्—अर्थात् मैं उसे बुद्धि प्रदान करता हूँ। आखिर यह बुद्धि क्या है? येन माम् उपयान्ति ते। भगवान् मनुष्य को बुद्धि देते हैं जिससे वह अज्ञान सागर को पार करके भगवान् के धाम को वापस जा सके। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि समस्त कारणों के कारण परम सत्य अथवा परब्रह्म को दार्शनिक चिन्तन द्वारा नहीं समझा जा सकता, किन्तु वे अपने भक्त के समक्ष प्रकट होते हैं, क्योंकि भक्त उनके चरणकमलों पर पूर्णत: समर्पित हो जाता है। अत: भगवद्गीता को स्वयं परम सत्य द्वारा उद्घाटित धर्मग्रन्थ मानना चाहिए, जिसे परम सत्य द्वारा इस लोक में प्रकट होने पर स्वयं, उच्चारित किया गया था। यदि कोई बुद्धिमान मनुष्य यह जानना चाहता है कि ईश्वर क्या है, तो उसे इस दिव्य साहित्य का अध्ययन प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में करना चाहिए। तभी कृष्ण को यथारूप समझना सरल होगा।

 
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