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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  4.11.25 
स एव विश्वं सृजति स एवावति हन्ति च ।
अथापि ह्यनहङ्कारान्नाज्यते गुणकर्मभि: ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; एव—निश्चय ही; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; सृजति—उत्पन्न करता है; स:—वह; एव—निश्चय ही; अवति—पालता है; हन्ति—संहार करता है; —भी; अथ अपि—और भी; हि—निश्चय ही; अनहङ्कारात्—अहंकाररहित होने से; —नहीं; अज्यते—फँसता है; गुण—गुणों से; कर्मभि:—कर्मों से ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ही इस भौतिक जगत की सृष्टि करते, पालते और यथासमय संहार करते हैं, किन्तु ऐसे कार्यों से परे रहने के कारण वे इनमें न तो अहंकार से और न प्रकृति के गुणों द्वारा प्रभावित होते हैं।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में आये हुए अनहंकार शब्द का अर्थ “अहंकाररहित” है। बद्धजीव अहंकारी होता है और अपने कर्म के फलस्वरूप वह इस जगत में अनेक प्रकार की देह प्राप्त करता है। कभी उसे देवता की देह प्राप्त होती है और वह देह को स्वात्म मान बैठता है। इसी प्रकार जब उसे कुत्ते की देह प्राप्त होती है, तो वह अपने (स्व) को वही देह मान लेता है। किन्तु भगवान् के लिए देह तथा आत्मा में ऐसा कोई अन्तर नहीं रहता। अत: भगवद्गीता का प्रमाण है कि जो व्यक्ति कृष्ण को सामान्य मनुष्य समझता है, वह उनके दिव्य स्वभाव से परिचित नहीं है और महामूर्ख है। भगवान् कहते हैं—न मां कर्माणि लिम्पन्ति—वे जो कुछ करते हैं उनसे उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि वे प्रकृति के भौतिक गुणों से कभी भी दूषित नहीं होते। हमारे पास भौतिक शरीर का होना सिद्ध करता है कि हम तीनों गुणों से दूषित हो चुके हैं। अर्जुन से भगवान् कहते हैं, “इसके पूर्व मेरे तथा तुम्हारे कई जन्म हुए थे, मुझे उनका स्मरण है, किन्तु तुम्हें नहीं है।” यही जीवात्मा और परमात्मा का अन्तर है। परमात्मा का कोई भौतिक शरीर नहीं होता और भौतिक शरीर न होने से वे जो भी कार्य करते हैं उनसे वे प्रभावित नहीं होते। अनेक मायावादी चिन्तक कृष्ण के शरीर को सत्त्वगुण के केन्द्रीभूत होने का प्रभाव मानते हैं और वे कृष्ण की आत्मा को उनके शरीर से पृथक् मानते हैं। किन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि बद्धजीव का शरीर चाहे उसमें भौतिक अच्छाइयाँ कितनी भी हों, फिर भी भौतिक होता है; जबकि कृष्ण का शरीर कभी भी भौतिक नहीं होता। वह दिव्य होता है। कृष्ण में अहंकार नहीं है, क्योंकि वे मिथ्या तथा अस्थायी देह से अपनी पहचान नहीं करते। उनका शरीर सदैव नित्य है। वे इस जगत में अपने मूल, दिव्य देह के साथ अवतरित होते हैं। भगवद्गीता में इसकी व्याख्या परं भावम् के रूप में की गई है। कृष्ण के व्यक्तित्व को समझने में परं भावम् तथा दिव्यम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
 
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