तम्—उनको; एव—निश्चय ही; मृत्युम्—मृत्यु; अमृतम्—अमरत्व; तात—हे पुत्र; दैवम्—ईश्वर; सर्व-आत्मना—सभी प्रकार से; उपेहि—शरण में जाओ; जगत्—जगत का; परायणम्—परिणति, चरम लक्ष्य; यस्मै—जिसको; बलिम्—भेंट; विश्व-सृज:— ब्रह्मा जैसे समस्त देवता; हरन्ति—ले जाते हैं; गाव:—बैल; यथा—जिस प्रकार; वै—निश्चय ही; नसि—नाक में; दाम—रस्सी से; यन्त्रिता:—वश में किये गये ।.
अनुवाद
हे बालक ध्रुव, तुम भगवान् की शरण में जाओ जो जगत की प्रगति के चरम लक्ष्य हैं। ब्रह्मादि सहित सभी देवगण उनके नियंत्रण में कार्य कर रहे हैं, जिस प्रकार नाक में रस्सी पड़ा बैल अपने स्वामी द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
तात्पर्य
परम नियामक से स्वतंत्र होने की घोषणा करना भौतिक रोग है। वस्तुत: जब हम परम नियामक को भूल जाते हैं और भौतिक प्रकृति पर अधिकार जमाना चाहते हैं, तो हमारा भौतिक अस्तित्व प्रारम्भ होता है। इस जगत में हर एक व्यक्ति परम नियामक बनने के लिए भरसक प्रयत्न कर रहा है चाहे वह व्यक्तिगत हो, राष्ट्र स्तर पर हो, सामाजिक हो अथवा अन्य रूपों में हो। ध्रुव महाराज को उनके पितामह ने युद्ध करने के लिए मना किया क्योंकि उनको चिन्ता थी कि ध्रुव व्यक्तिगत आकांक्षा के कारण यक्षों की समग्र जाति को युद्ध में विनष्ट कर देने पर तुले थे। अत: इस श्लोक में स्वायंभुव मनु परम नियंता की स्थिति बताकर ध्रुव की मिथ्या आकांक्षा के अन्तिम अंश को भी मिटा देना चाहते हैं। यहाँ पर मृत्युम् अमृतम् शब्द सार्थक हैं जिनका अर्थ है, “मृत्यु तथा अमरता।” भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं, “मैं ही परम काल हूँ जो असुरों से सब कुछ छीन लेता है।” असुरों का कार्य प्रकृति के स्वामी बन कर जीवन-संघर्ष करते रहना है। असुरों की बारम्बार मृत्यु होती रहती है और वे भौतिक जगत में बुरी तरह से उलझे रहते हैं। भगवान् असुरों के लिए मृत्यु, किन्तु देवों के लिए अमृत अर्थात् शाश्वत जीवन हैं। जो भक्त भगवान् की निरन्तर सेवा करते रहते हैं उन्हें पहले ही अमरत्व प्राप्त हुआ रहता है, क्योंकि वे इस जीवन में जो भी करते हैं उसे अगले जन्मों में भी करते रहेंगे। केवल भौतिक देहों के स्थान पर उन्हें दिव्य-देहें प्राप्त होंगी। असुरों की भाँति उन्हें भौतिक शरीरों को बदलना नहीं पड़ता। फलत: भगवान् एक ही साथ मृत्यु तथा अमरत्व दोनों हैं। वे असुरों के लिए मृत्यु तथा भक्तों के लिए अमरत्व हैं। वे हर एक के चरम गन्तव्य हैं, क्योंकि वे समस्त कारणों के कारण हैं। ध्रुव महाराज को यह उपदेश मिला कि कोई भी व्यक्तिगत आकांक्षा रखे बिना भगवान् की शरण में जाये। कोई यह तर्क कर सकता है कि देवताओं की पूजा क्यों की जाती है? यहाँ पर यह उत्तर दिया गया है कि केवल अल्पज्ञानी पुरुष ही देवताओं को पूजते हैं। देवता स्वयं परमेश्वर को प्रसन्न करने के उद्देश्य से ही यज्ञों को स्वीकार करते हैं।
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