श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  4.11.28 
य: पञ्चवर्षो जननीं त्वं विहाय
मातु: सपत्‍न्या वचसा भिन्नमर्मा ।
वनं गतस्तपसा प्रत्यगक्ष-
माराध्य लेभे मूर्ध्नि पदं त्रिलोक्या: ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो; पञ्च-वर्ष:—पाँच साल के; जननीम्—माता को; त्वम्—तुम; विहाय—छोड़ कर; मातु:—माता का; स-पत्न्या:— सौतों के; वचसा—शब्दों से; भिन्न-मर्मा—हृदय में शोकाकुल; वनम्—जंगल को; गत:—गये हुए; तपसा—तपस्या द्वारा; प्रत्यक्-अक्षम्—परमेश्वर को; आराध्य—पूज कर; लेभे—प्राप्त किया; मूर्ध्नि—चोटी पर; पदम्—पद; त्रि-लोक्या:—तीनों लोकों की ।.
 
अनुवाद
 
 हे ध्रुव, तुम केवल पाँच वर्ष की आयु में ही अपनी माता कि सौत के वचनों से अत्यन्त दुखी हुए और बड़ी बहादुरी से अपनी माता का संरक्षण त्याग दिया तथा भगवान् का साक्षात्कार करने के उद्देश्य से योगाभ्यास में संलग्न होने के लिए जंगल चले गये थे। इस कारण तुमने पहले से ही तीनों लोकों में सर्वोच्च पद प्राप्त कर लिया है।
 
तात्पर्य
 मनु को गर्व था कि ध्रुव महाराज उनके कुल के वंशधर थे, क्योंकि जब वे पाँच साल के थे तभी उन्होंने भगवान् का ध्यान करना प्रारम्भ किया और केवल छह मास में परमेश्वर का साक्षात्कार कर लिया। वस्तुत: ध्रुव महाराज मनुवंश के अथवा मनुष्य-परिवार के भूषण हैं। मनुष्य-परिवार का प्रारम्भ मनु से होता है। संस्कृत में मनुष्य शब्द का अर्थ “मनु की संतान” है। ध्रुव महाराज न केवल स्वायंभुव मनु के कुल की कीर्ति हैं, वरन् वे सम्पूर्ण मानव समाज की कीर्ति हैं। चूँकि ध्रुव महाराज ने पहले ही भगवान् के समक्ष समर्पण कर दिया था, अत: उनसे विशेष अनुरोध किया जा रहा था कि ऐसा कुछ न करें जो शरणागत के लिए अशोभनीय हो।
 
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