श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  4.11.29 
तमेनमङ्गात्मनि मुक्तविग्रहे
व्यपाश्रितं निर्गुणमेकमक्षरम् ।
आत्मानमन्विच्छ विमुक्तमात्मद‍ृग्
यस्मिन्निदं भेदमसत्प्रतीयते ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको; एनम्—वह; अङ्ग—हे ध्रुव; आत्मनि—मन में; मुक्त-विग्रहे—क्रोध-रहित; व्यपाश्रितम्—स्थित; निर्गुणम्— दिव्य; एकम्—एक; अक्षरम्—अच्युत ब्रह्म; आत्मानम्—स्व; अन्विच्छ—ढूँढने का यत्न करो; विमुक्तम्—अकलुषित; आत्म- दृक्—परमात्मा की ओर मुख किये; यस्मिन्—जिसमें; इदम्—यह; भेदम्—अन्तर; असत्—असत्य; प्रतीयते—प्रतीत होता है ।.
 
अनुवाद
 
 अत: हे ध्रुव, अपना ध्यान परम पुरुष अच्युत ब्रह्म की ओर फेरो। तुम अपनी मूल स्थिति में रह कर भगवान् का दर्शन करो। इस तरह आत्म-साक्षात्कार द्वारा तुम इस भौतिक अन्तर को क्षणिक पाओगे।
 
तात्पर्य
 जीवात्माओं की आत्म-साक्षात्कार की उनकी स्थिति के अनुसार, तीन प्रकार की दृष्टि होती है। देहात्म-बुद्धि के अनुसार मनुष्य योनियों के रूप में अन्तर देखता है। भौतिक रूपों में जीवात्मा वास्तव में अनेक भौतिक रूपों में से होकर गुजरता है, किन्तु शरीर के इन परिवर्तनों के बावजूद वह शाश्वत है। अत: देहात्म-बुद्धि के अनुसार देखे जाने पर एक मनुष्य दूसरे से भिन्न लगता है। मनु चाहते थे कि ध्रुव महाराज यक्षों के प्रति अपनी दृष्टि बदल दें क्योंकि वे उन्हें अपने से भिन्न अथवा शत्रु-रूप में देख रहे थे। यथार्थ में कोई किसी का मित्र या शत्रु नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति कर्मों के अधीन विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करता है, किन्तु जैसे ही उसे आत्म-बोध हो जाता है, तो इस नियम के अनुसार भेद नहीं पाता है। दूसरे शब्दों में, जैसाकि भगवद्गीता (१८.५४) में कहा गया है—

ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥

पहले से मुक्त भक्त को बाह्य शरीर में भेद नहीं दिखता, वह समस्त जीवात्माओं को भगवान् के नित्य दास के रूप में देखता है। मनु ने ध्रुव महाराज को उपदेश दिया कि वे इसी दृष्टि से देखें। उन्हें ऐसा उपदेश इसलिए भी दिया गया, क्योंकि वे महान् भक्त थे, उन्हें अन्य जीवात्माओं को सामान्य दृष्टि से नहीं देखना चाहिए था। अप्रत्यक्षत: मनु ने संकेत किया कि ध्रुव ने स्नेहवश अपने भाई को अपना सगा और यक्षों को शत्रु माना है। इस प्रकार का भेद उस समय दूर हो जाता है जब मनुष्य भगवान् के नित्य दास रूप में अपनी मूल शाश्वत अवस्था में स्थित होता है।

 
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