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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  4.11.31 
संयच्छ रोषं भद्रं ते प्रतीपं श्रेयसां परम् ।
श्रुतेन भूयसा राजन्नगदेन यथामयम् ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
संयच्छ—जरा रोको; रोषम्—क्रोध को; भद्रम्—कल्याण हो; ते—तुम्हारा; प्रतीपम्—शत्रु; श्रेयसाम्—समस्त अच्छाई का; परम्—अग्रणी; श्रुतेन—सुनकर; भूयसा—निरन्तर; राजन्—हे राजा; अगदेन—उपचार से; यथा—जिस प्रकार; आमयम्— रोग ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, मैंने तुम्हें जो कुछ कहा है, उस पर विचार करो। यह राग पर ओषधि के समान काम करेगा। अपने क्रोध को रोको, क्योंकि आत्मबोध के मार्ग में क्रोध सबसे बड़ा शत्रु है। मैं तुम्हारे मंगल की कामना करता हूँ। तुम मेरे उपदेशों का पालन करो।
 
तात्पर्य
 ध्रुव महाराज मुक्त जीव थे और वास्तव में वे किसी से रुष्ट न थे। किन्तु शासक होने के नाते, राज्य में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने की दृष्टि से कुछ समय के लिए क्रुद्ध होना उनका कर्तव्य था। उनका भाई उत्तम निर्दोष था, तो भी किसी यक्ष ने उसका वध कर दिया था। राजा होने के नाते ध्रुव महाराज का कर्तव्य था कि अपराधी का वध जैसे को तैसा करते। ध्रुव राजा थे, चुनौती उपस्थित होने पर ध्रुव महाराज ने डटकर युद्ध किया और यक्षों को यथेष्ठ रूप से दण्डित किया। किन्तु क्रोध ऐसा है कि बढ़ाने से असीमित रूप में बढ़ता है। इस दृष्टि से कि ध्रुव महाराज शासकीय क्रोध सीमा का अतिक्रमण न कर जाये, मनु ने अपने पौत्र को रोक कर उचित ही किया। ध्रुव महाराज अपने पितामह के प्रयोजन को समझ गये, अत: उन्होंने तुरन्त युद्ध बन्द कर दिया। इस श्लोक में श्रुतेन भूयसा शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिनका अर्थ है “निरन्तर सुनते रहने से।” भक्ति के विषय में निरन्तर श्रवण से क्रोध के वेग को शान्त किया जा सकता है क्योंकि यह भक्ति के मार्ग में बाधक है। श्रील परीक्षित महाराज ने कहा है कि भगवान् की लीलाओं का निरन्तर श्रवण समस्त भवरोगों की रामबाण दवा है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह भगवान् के विषय में निरन्तर श्रवण करे। इससे मानसिक सन्तुलन बना रहेगा और आध्यात्मिक जीवन की प्रगति में कोई बाधा नहीं आएगी।

दुष्टों पर ध्रुव महाराज का क्रुद्ध होना उचित था। इस प्रसंग में एक सर्प के बारे में एक लघु कथा है जो नारद के उपदेश से भक्त बन गया था। नारद ने उसे उपदेश दिया था कि अब आगे वह किसी को न काटे। चूंकि सामान्य रूप में साँप दूसरों को काटना अपना धर्म समझता है, अत: भक्त होने के नाते उसे ऐसा करने से रोका गया। दुर्भाग्यवश, लोगों ने साँप के न काटने के व्रत का अनुचित लाभ उठाया—

विशेष रूप से बच्चे उस पर पत्थर फेंकने लगे। किन्तु वह किसी को न काटता, क्योंकि उसके गुरु का यही आदेश था। कुछ काल बाद जब वह अपने गुरु नारद से मिला तो उसने शिकायत की, “मैंने निर्दोष जीवों को काटने की बुरी आदत छोड़ दी है, किन्तु वे मुझ पर पत्थर फेंक कर मेरे साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं।” यह सुनकर नारद ने उसे उपदेश दिया, “काटना मत; किन्तु अपना फन फैलाना मत भूलना जिससे लगे कि तुम काटनेवाले हो।” ऐसा करने से वे चले जाएंगे। इसी प्रकार भक्त सदैव अहिंसक होता है, उसमें समस्त सद्गुण रहते हैं, किन्तु इस सामान्य जगत में, जब अन्य लोग उत्पात मचाते हैं, तो उसे उत्पातियों को भगाने के लिए उस समय अवश्य क्रुद्ध होना चाहिए।

 
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