जो व्यक्ति इस भौतिक जगत से मुक्ति चाहता है उसे चाहिए कि वह क्रोध के वशीभूत न हो, क्योंकि क्रोध से मोहग्रस्त होने पर वह अन्य सबों के लिए भय का कारण बन जाता है।
तात्पर्य
भक्त या साधु पुरुष को न तो अन्यों के लिए भय का कारण बनना चाहिए और न किसी को चाहिए कि उसके भय का कारण बने। यदि दूसरे से शत्रुता का व्यवहार नहीं किया जाता तो फिर कोई किसी का शत्रु क्यों बनेगा? किन्तु जीसस क्राइस्ट का उदाहरण हमारे समक्ष है जिनके शत्रुओं ने उन्हें क्रूस (सूली) चढ़ा दिया। असुर सदैव विद्यमान रहते हैं और वे साधु पुरुषों में भी दोष निकालते रहते हैं, किन्तु साधु पुरुष कभी रुष्ट नहीं होते, भले ही उन्हें कितना ही क्यों न उकसाया जाये।
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