श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  4.11.33 
हेलनं गिरिशभ्रातुर्धनदस्य त्वया कृतम् ।
यज्जघ्निवान् पुण्यजनान् भ्रातृघ्नानित्यमर्षित: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
हेलनम्—दुर्व्यवहार; गिरिश—शिवजी के; भ्रातु:—भाई; धनदस्य—कुवेर का; त्वया—तुम्हारे द्वारा; कृतम्—किया गया; यत्—क्योंकि; जघ्निवान्—तुम्हारे द्वारा मारे गये; पुण्य-जनान्—यक्षगण; भ्रातृ—तुम्हारे भाई के; घ्नान्—मारने वाले; इति— इस प्रकार (सोचकर); अमर्षित:—क्रुद्ध ।.
 
अनुवाद
 
 हे ध्रुव, तुमने सोचा कि यक्षों ने तुम्हारे भाई का वध किया है, अत: तुमने अनेक यक्षों को मार डाला है। किन्तु इस कृत्य से तुमने शिवजी के भ्राता एवं देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर के मन को क्षुब्ध कर दिया हैं। ख्याल करो कि तुम्हारे ये कर्म कुबेर तथा शिव दोनों के प्रति अतीव अवज्ञापूर्ण हैं।
 
तात्पर्य
 मनु ने बताया कि यक्ष कुबेर के परिवार से सम्बन्धित हैं, अत: उनके प्रति शत्रुभाव के कारण ध्रुव महाराज शिव तथा उनके भाई कुबेर के प्रति भी अपराधी हैं। वे सामान्य व्यक्ति न थे, इसलिए उन्हें पुण्य-जनान् अर्थात् पवित्र व्यक्ति कहा गया है। किसी-न-किसी प्रकार से कुबेर क्षुब्ध थे और ध्रुव महाराज को सलाह दी गई कि वे उन्हें शान्त करें।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥