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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  4.11.4 
तैस्तिग्मधारै: प्रधने शिलीमुखै-
रितस्तत: पुण्यजना उपद्रुता: ।
तमभ्यधावन् कुपिता उदायुधा:
सुपर्णमुन्नद्धफणा इवाहय: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
तै:—उनके द्वारा; तिग्म-धारै:—पैनी धार वाले; प्रधने—युद्धभूमि में; शिली-मुखै:—बाण; इत: तत:—इधर-उधर; पुण्य जना:—यक्षगण; उपद्रुता:—अत्यन्त क्षुब्ध होकर; तम्—ध्रुव महाराज की ओर; अभ्यधावन्—दौेड़े; कुपिता:—क्रुद्ध; उदायुधा:—हथियार उठाये; सुपर्णम्—गरुड़ की ओर; उन्नद्ध-फणा:—फन उठाये; इव—सदृश; अहय:—सर्प ।.
 
अनुवाद
 
 उन तीखी धारवाले बाणों ने शत्रु-सैनिकों को विचलित कर दिया, और वे प्राय: मूर्च्छित हो गये। किन्तु ध्रुव महाराज से क्रुद्ध होकर यक्षगण युद्धक्षेत्र में किसी न किसी प्रकार अपने-अपने हथियार लेकर एकत्र हो गये और उन्होंने आक्रमण कर दिया। जिस प्रकार गरुड़ के छेडऩे पर सर्प अपना-अपना फन उठाकर गरुड़ की ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार समस्त यक्ष सैनिक अपने- अपने हथियार उठाये ध्रुव महाराज को जीतने की तैयारी करने लगे।
 
 
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