श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  4.11.5 
स तान् पृषत्कैरभिधावतो मृधे
निकृत्तबाहूरुशिरोधरोदरान् ।
निनाय लोकं परमर्कमण्डलं
व्रजन्ति निर्भिद्य यमूर्ध्वरेतस: ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह (ध्रुव); तान्—समस्त यक्षों को; पृषत्कै:—अपने बाण से; अभिधावत:—आगे आते हुए; मृधे—युद्धभूमि में; निकृत्त—विलग, छिन्न; बाहु—भुजाएँ; ऊरु—जंघाएँ; शिर:-धर—गर्दन; उदरान्—तथा पेट; निनाय—प्रदान किया; लोकम्—लोक को; परम्—परम; अर्क-मण्डलम्—सूर्य-मण्डल; व्रजन्ति—जाते हैं; निर्भिद्य—भेदते हुए; यम्—जिसको; ऊर्ध्व-रेतस:—ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी, जो वीर्य स्खलित नहीं करते ।.
 
अनुवाद
 
 जब ध्रुव महाराज ने यक्षों को आगे बढ़ते देखा तो उन्होंने तुरन्त बाणों को चढ़ा लिया और शत्रुओं को खण्ड-खण्ड कर डाला। शरीरों से बाहु, पाँव, सिर तथा उदर अलग-अलग करके उन्होंने यक्षों को सूर्य-मण्डल के ऊपर स्थित लोकों में भेज दिया, जो केवल श्रेष्ठ ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारियों को प्राप्त हो पाता है।
 
तात्पर्य
 भगवान् या उनके भक्तों द्वारा वध किया जाना अभक्तों के लिए शुभ है। ध्रुव महाराज ने यक्षों का अंधाधुन्ध वध किया था, किन्तु इससे उन्हें ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारियों को प्राप्य लोक की प्राप्ति हुई। जिस प्रकार निर्विशेष ज्ञानी अथवा भगवान् द्वारा वध किये असुर ब्रह्मलोक या सत्यलोक को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार भक्तों द्वारा वध किये गये लोग भी सत्यलोक को जाते हैं। यहाँ पर वर्णित सत्यलोक तक पहुँचने के लिए सूर्यलोक के ऊपर उठना होता है। अत: वध करना सदा ही बुरा नहीं होता। यदि भगवान् द्वारा या उनके भक्त द्वारा, अथवा किसी महान् यज्ञ के लिए वध होता है, तो भगवान् अथवा उनके भक्तों के द्वारा किए गए वध की तुलना में भौतिक वध तथाकथित अहिंसा की तुलना में नगण्य है। यहाँ तक कि जब कोई राजा, अथवा राजसत्ता किसी हत्यारे का वध करती है, तो वह हत्यारे के लिए लाभप्रद है, क्योंकि इससे उसके सारे पाप-बंधन छूट जाते हैं।

इस श्लोक का महत्त्वपूर्ण शब्द ऊर्ध्व-रेतस: है, जिसका अर्थ है ऐसा ब्रह्मचारी जिसका वीर्य कभी भी स्खलित नहीं हुआ हो। वेदों में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य इतना आवश्यक है कि भले ही कोई तपस्या या वेदों में बताए गए अनुष्ठान करे या न करे, किन्तु यदि वह शुद्ध ब्रह्मचारी रहता है, तो उसके कारण वह मृत्यु के पश्चात् सत्यलोक को जाता है। सामान्यत: कामी जीवन समस्त सांसारिक क्लेशों की जड़ है। वैदिक सभ्यता में विषयी जीवन पर अनेक प्रकार से अंकुश लगा रहता था। सारी सामाजिक व्यवस्था की सम्पूर्ण जनसंख्या में से केवल गृहस्थों को संयमित काम-भोग करने की अनुमति प्राप्त थी। अन्य सभी काम-भोग से दूर रहते हैं। विशेषकर इस युग के लोग वीर्यधारण करने के लाभ से परिचित नहीं हैं। फलस्वरूप वे नाना प्रकार के भौतिक गुणों में फँसकर केवल जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। ऊर्ध्व-रेतस: शब्द विशेष रूप से मायावादी संन्यासियों को इंगित करता है, जो तपस्या के कठिन नियमों का पालन करते हैं। भगवद्गीता (८.१६) में भगवान् का कहना है कि भले ही कोई ब्रह्मलोक को क्यों न प्राप्त हो ले, उसे पुन: नीचे आना पड़ता है (आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन)। फलत: वास्तविक मुक्ति तो भक्ति द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि भक्ति से मनुष्य ब्रह्मलोक से भी ऊपर जाता है, जहाँ से वह पुन: नहीं लौटता। मायावादी संन्यासियों को मुक्त होने का गर्व रहता है, किन्तु वास्तविक मुक्ति तब तक प्राप्त नहीं हो सकती जब तक भगवान् की भक्ति करके उनके सम्पर्क में न रहा जाये। कहा गया है—हरिं बिना न सृतिं तरन्ति—कृष्ण की कृपा के बिना किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती।

 
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