श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 11: युद्ध बन्द करने के लिए  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  4.11.7 
मनुरुवाच
अलं वत्सातिरोषेण तमोद्वारेण पाप्मना ।
येन पुण्यजनानेतानवधीस्त्वमनागस: ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
मनु: उवाच—मनु ने कहा; अलम्—बहुत हुआ, बस; वत्स—मेरे बालक; अतिरोषेण—अत्यन्त क्रोधपूर्वक; तम:-द्वारेण— अज्ञान का मार्ग; पाप्मना—पापी; येन—जिससे; पुण्य-जनान्—यक्षगण; एतान्—ये सब; अवधी:—तुम्हारे द्वारा मारे गये; त्वम्—तुम; अनागस:—निरपराध ।.
 
अनुवाद
 
 श्री मनु ने कहा : हे पुत्र, बस करो। वृथा क्रोध करना अच्छा नहीं—यह तो नारकीय जीवन का मार्ग है। अब तुम यक्षों को मार कर अपनी सीमा से परे जा रहे हो, क्योंकि ये वास्तव में अपराधी नहीं हैं।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में अतिरोषेण शब्द का अर्थ है, “अनावश्यक क्रोध से।” जब ध्रुव महाराज सम्यक क्रोध की सीमा लाँघ गये तो उनके पितामह स्वायंभुव मनु उन्हें आगे पापकर्म करने से बचाने के लिए तुरन्त वहाँ आये। इससे हम समझ सकते हैं कि वध करना बुरा नहीं है, किन्तु जब वृथा ही वध किया जाये, अथवा जब अपराध-रहित व्यक्ति को मार दिया जाये तो ऐसे वध से नरक का मार्ग खुलता है। महान् भक्त होने के कारण ध्रुव महाराज ऐसे पाप-कर्म से बचा लिए गये।

क्षत्रिय को राज्य में शान्ति तथा व्यवस्था कायम रखने के लिए वध करने की अनुमति दी गई है; उसे अकारण वध करने या हिंसा करने की छूट प्राप्त नहीं है। हिंसा से नारकीय जीवन का मार्ग प्रशस्त होता है, किन्तु राज्य में शान्ति-व्यवस्था बनाये रखने के लिए यह आवश्यक भी है। यहाँ पर मनु ने ध्रुव महाराज को यक्षों का वध करने से रोका क्योंकि उनमें से केवल एक ही उनके भाई उत्तम की हत्या के लिए दण्डनीय था, सभी यक्ष-नागरिक दण्डनीय नहीं थे। किन्तु हम देखते हैं कि आधुनिक युद्ध पद्धति में निर्दोष नागरिकों पर आक्रमण किये जाते हैं। मनु के नियमानुसार ऐसी युद्ध-पद्धति अत्यन्त पापपूर्ण है। यही नहीं, इस समय सभ्य राष्ट्रों द्वारा वृथा ही निर्दोष पशुओं को मारने के लिए अनेक कसाईघर चलाये जा रहे हैं। जब किसी राष्ट्र पर शत्रु आक्रमण करते हैं, तो नागरिकों का जन संहार उनके अपने पापकर्मों का फल माना जाना चाहिए। यही प्रकृति का नियम है।

 
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