श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  4.12.10 
अथायजत यज्ञेशं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणै: ।
द्रव्यक्रियादेवतानां कर्म कर्मफलप्रदम् ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; अयजत—पूजा की; यज्ञ-ईशम्—यज्ञों के स्वामी की; क्रतुभि:—यज्ञोत्सवों द्वारा; भूरि—बड़ी; दक्षिणै:— दक्षिणा द्वारा; द्रव्य-क्रिया-देवतानाम्—यज्ञों का (जिसमें सामग्री, कार्य तथा देवता सम्मिलित हैं); कर्म—कर्म; कर्म-फल— कर्मों का परिणाम; प्रदम्—देनेवाला ।.
 
अनुवाद
 
 जब तक ध्रुव महाराज घर में रहे उन्होंने समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् को प्रसन्न करने के लिए यज्ञोत्सव सम्पन्न किये। जितने भी संस्कार सम्बन्धी निर्दिष्ट यज्ञ हैं, वे भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के निमित्त हैं, क्योंकि वे ही ऐसे समस्त यज्ञों के लक्ष्य हैं और यज्ञ-जन्य आशीर्वादों के प्रदाता हैं।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता (३.९) में कहा गया है—यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:— मनुष्य को चाहिए कि परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए ही कार्य करे, अन्यथा वह कर्म-फल में उलझ जाता है। वर्ण तथा आश्रम के चार विभागों के अनुसार विशेषत: ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों को महान् संस्कारोचित यज्ञ करने तथा संचित धन को उदारतापूर्वक वितरित करने की सलाह दी जाती है। ध्रुव महाराज ने एक राजा तथा आदर्श क्षत्रिय होने के नाते ऐसे अनेक यज्ञ किये और उदारतापूर्वक दान दिया। क्षत्रियों तथा वैश्यों से आशा की जाती है कि वे धन कमाकर उसका अधिकाधिक संग्रह करें। कभी-कभी वे पाप कर्मों द्वारा ऐसा करते हैं। क्षत्रिय देश पर शासन करने के लिए होते हैं; उदाहरणार्थ, ध्रुव महाराज को अपने शासन काल में यक्षों से युद्ध करना तथा उनका वध करना पड़ा। क्षत्रियों के लिए ऐसा कार्य आवश्यक है। क्षत्रिय को कायर नहीं होना चाहिए, न ही उसे अहिंसक होना चाहिए; देश पर शासन करने के लिए उसे हिंसात्मक कार्य भी करने होते हैं।

इसीलिए क्षत्रियों को अपनी संचित सम्पत्ति में से कम से कम पचास प्रतिशत दान देने की सलाह दी गई है। भगवद्गीता में संस्तुति की गई है कि संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो जाने पर भी यज्ञ, दान तथा तपस्या करना नहीं छोडऩा चाहिए। इनका कदापि त्याग न करें। तपस्या तो संन्यास आश्रम के लिए है; जो लोग सांसारिक कार्यों से विरक्त हो चुके हैं उन्हें तपस्या करनी चाहिए। जो क्षत्रिय तथा वैश्य भौतिक जगत में हैं उन्हें दान देना चाहिए। ब्रह्मचारियों को जीवन के प्रारम्भ में विभिन्न प्रकार के यज्ञ करने चाहिए।

आदर्श राजा के रूप में ध्रुव महाराज ने दान द्वारा अपना कोष लगभग खाली कर दिया। राजा का कार्य नागरिकों से केवल करों की वसूली करके धन संग्रह करना और उसको इन्द्रियतृप्ति में व्यय करना ही नहीं है। जब से राजाओं ने प्रजा से एकत्र किये गये करों को अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए व्यय करना प्रारम्भ किया, तब से विश्व का राजतंत्र विफल हो गया है। वस्तुत:, चाहे राजतंत्र हो अथवा प्रजातंत्र, भ्रष्टाचार अभी भी सर्वत्र एक सा चल रहा है। इस समय प्रजातांत्रिक सरकार में विभिन्न दल होते हैं। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपनी कुर्सी बनाये रखने या अपने दल को सत्तारूढ़ बनाये रखने में व्यस्त है। राजनीतिज्ञों को जनता के कल्याण के विषय में सोचने के लिए तनिक भी समय नहीं मिलता जिसको आय कर, बिक्री कर इत्यादि के रूप में भारी कर लगाकर सताते हैं। कभी-कभी लोगों की आय का ८०-९० प्रतिशत कर में ले लिया जाता है और इसको अफसरों तथा शासनकर्ताओं के उच्च वेतन को चुकता करने में मनमाने ढंग से व्यय कर दिया जाता है। प्राचीन काल में, नागरिकों से एकत्र किया गया कर बड़े-बड़े यज्ञों को सम्पन्न करने में व्यय किया जाता था जैसाकि वैदिक साहित्य में आदेश है। किन्तु सम्प्रति सभी प्रकार के यज्ञों को कर पाना बिल्कुल असम्भव है, अत: शास्त्रों में यह संस्तुति की गई है कि लोग संकीर्तन यज्ञ करें। कोई भी गृहस्थ चाहे कैसी भी स्थिति में हो बिना खर्च के संकीर्तन यज्ञ कर सकता है। परिवार के सभी सदस्य एकसाथ बैठकर ताली बजा-बजाकर हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन कर सकते हैं। किसी न किसी प्रकार सभी लोग ऐसा यज्ञ कर सकते हैं और लोगों को प्रसाद वितरित कर सकते हैं। इस कलियुग के लिए यही पर्याप्त है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन इसी सिद्धान्त पर आधारित है—जहाँ तक सम्भव हो, मंदिर में या उससे बाहर प्रत्येक क्षण हरे कृष्ण मंत्र का जप करे तथा यथासम्भव प्रसाद वितरित करे। इस प्रक्रम को राज्य प्रशासकों के तथा जो देश की सम्पत्ति को उत्पन्न करते हैं उनके सहयोग से आगे बढ़ाया जा सकता है। मात्र प्रसाद के वितरण तथा संकीर्तन से सारा विश्व शान्तिपूर्ण तथा समृद्ध बन सकता है।

सामान्यत: वैदिक साहित्य में जितने भी यज्ञों की संस्तुति की गई है उनमें देवताओं को भेंट चढ़ाई जाती है। देवताओं की पूजा कम बुद्धि वाले लोगों के लिए है। वास्तव में ऐसे यज्ञों का फल भगवान् नारायण को प्राप्त होता है। भगवद्गीता (५.२९) में भगवान् कृष्ण कहते हैं—भोक्तारं यज्ञतपसां—वे ही समस्त यज्ञों के वास्तविक भोक्ता हैं। इसीलिए उनका नाम यज्ञपुरुष है।

यद्यपि ध्रुव महाराज महान् भक्त थे और उन्हें इन यज्ञों से कुछ लेना-देना नहीं था, किन्तु अपनी प्रजा के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने अनेक यज्ञ किये और अपनी सारी सम्पत्ति दान में दे दी। जब तक वे गृहस्थ के रूप में रहे, उन्होंने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए एक दमड़ी भी खर्च नहीं किया। इस श्लोक में कर्म-फलप्रदम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भगवान् जीवात्माओं के इच्छानुसार सबों को भिन्न-भिन्न कर्म प्रदान करते हैं, वे प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परमात्मा के रूप में स्थित रहते हैं और वे इतने दयालु तथा उदार हैं कि जो कोई जो कुछ करना चाहता है वे उसके लिए सारी सुविधाएँ प्रदान करते हैं। तब जीवात्मा अपने कर्मों के फल को भी भोगता है। यदि कोई सुख भोगना चाहता है या भौतिक प्रकृति पर अधिकार जताना चाहता है, तो भगवान् इसकी भी सुविधा प्रदान करते हैं किन्तु वह कर्मफल में उलझ जाता है। इसी प्रकार यदि कोई पूर्णरूपेण भक्ति करना चाहता है, तो भगवान् उसे सारी सुविधाएँ प्रदान करते हैं और भक्त उसका फल भोगता है। इसीलिए भगवान् कर्म फलप्रद नाम से विख्यात हैं।

 
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