श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.12.11 
सर्वात्मन्यच्युतेऽसर्वे तीव्रौघां भक्तिमुद्वहन् ।
ददर्शात्मनि भूतेषु तमेवावस्थितं विभुम् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
सर्व-आत्मनि—परमात्मा में; अच्युते—अच्युत में; असर्वे—किसी सीमा के बिना, असीम; तीव्र-ओघाम्—प्रबल वेग युक्त; भक्तिम्—भक्ति; उद्वहन्—करते हुए; ददर्श—देखा; आत्मनि—परम आत्मा में; भूतेषु—समस्त जीवात्माओं में; तम्—उसको; एव—केवल; अवस्थितम्—स्थित, विराजमान; विभुम्—सर्वशक्तिमान ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज निर्बाध-बल के साथ हर वस्तु के आगार परमेश्वर की भक्ति करने लगे। भक्ति करते हुए उन्हें ऐसा दिखता मानो प्रत्येक वस्तु उन्हीं (भगवान्) में स्थित है और वे समस्त जीवात्माओं में स्थित हैं। भगवान् अच्युत कहलाते हैं, क्योंकि वे कभी भी अपने भक्तों को सुरक्षा प्रदान करने के मूल कर्तव्य से चूकते नहीं।
 
तात्पर्य
 ध्रुव महाराज ने न केवल अनेक यज्ञ किये, अपितु उन्होंने भगवान् की दिव्य भक्ति भी जारी रखी। जैसाकि वैदिक शास्त्रों में आदेश है, सामान्य कर्मी लोग, जो अपने सकाम कर्मों का फल भोगना चाहते हैं, अपने को यज्ञ तथा अनुष्ठानों तक ही सीमित रखते हैं। यद्यपि ध्रुव महाराज ने आदर्श राजा होने के उद्देश्य से अनेक यज्ञ किये थे तो भी वे निरन्तर भक्तियोग में लगे रहे। भगवान् शरणागत भक्तों की सदा से रक्षा करते आये हैं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है (ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति) भक्त भगवान् को प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित देखता है। सामान्य व्यक्ति नहीं समझ पाते कि भगवान् प्रत्येक हृदय में किस प्रकार स्थित रह सकता है, किन्तु भक्त उन्हें वास्तव में स्थित देख सकता है। वह न केवल उनका बाह्य दर्शन करता है, अपितु अपनी आत्मदृष्टि से यह भी देख पाता है कि भगवान् पर ही सब कुछ टिका है, जैसाकि भगवद्गीता में कथित है (मत्स्थानि सर्वभूतानि)। यही महाभागवत की दृष्टि है। वह भी सबों की भाँति सब कुछ देखता है, किन्तु केवल वृक्ष, पर्वत, नगर या आकाश को न देखकर वह इन वस्तुओं में अपने पूज्य परमेश्वर को देखता है, क्योंकि सभी वस्तुएँ उन्हीं पर टिकी हैं। यह महाभागवत की दृष्टि है। संक्षेप में कह सकते हैं कि महाभागवत अत्यन्त महान् शुद्ध भक्त है, जो भगवान् को सर्वत्र तथा सबों के हृदयों में स्थित देखता है। ऐसा उन भक्तों के लिए सम्भव है जिन्होंने भगवान् के प्रति उच्च भक्ति-भाव उत्पन्न कर रखा है। जैसाकि ब्रह्म संहिता में (५.३८) कहा गया है—प्रेमाञ्जनच्छुरित भक्तिविलोचनेन—जिन्होंने भगवत्प्रेम रूपी अंजन को नेत्रों में लगा रखा है, वे ही परमेश्वर का सर्वत्र साक्षात्कार कर पाते हैं, कल्पना या तथाकथित ध्यान से ऐसा सम्भव नहीं।
 
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