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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  4.12.13 
षट्‌त्रिंशद्वर्षसाहस्रं शशास क्षितिमण्डलम् ।
भोगै: पुण्यक्षयं कुर्वन्नभोगैरशुभक्षयम् ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
षट्-त्रिंशत्—छत्तीस; वर्ष—वर्ष; साहस्रम्—हजार; शशास—राज्य किया; क्षिति-मण्डलम्—पृथ्वी लोक में; भोगै:—भोग द्वारा; पुण्य—पवित्र कार्यों के फल का; क्षयम्—हानि, ह्रास; कुर्वन्—करते हुए; अभोगै:—तपस्या से; अशुभ—अशुभ फलों का; क्षयम्—ह्रास ।.
 
अनुवाद
 
 ध्रुव महाराज ने इस लोक पर छत्तीस हजार वर्षों तक राज्य किया; उन्होंने पुण्यों को भोग द्वारा और अशुभ फलों को तपस्या द्वारा क्षीण बनाया।
 
तात्पर्य
 ध्रुव महाराज ने इस लोक पर छत्तीस हजार वर्षों तक राज्य किया जिसका अर्थ यह हुआ कि वे सत्ययुग में विद्यमान थे, क्योंकि सत्ययुग में लोग एक लाख वर्षों तक जीवित रहते थे। उसके बाद के युग त्रेता में लोग दस हजार वर्ष तक और उसके अगले गुण द्वापर में एक हजार वर्ष तक जीते थे। आज के कलियुग में जीवन की अधिकतम अवधि एक सौ वर्ष है। युग-परिवर्तन के साथ जीवन अवधि तथा स्मृति, दयाभाव तथा अन्य सभी सद्गुणों का ह्रास होता रहता है। कार्य दो तरह के होते हैं—पवित्र तथा अपवित्र। पवित्र कार्य (पुण्य) करने से उच्च सुखोपभोग की सुविधा मिल सकती है, किन्तु अपवित्र कार्यों से कठिन दुख झेलना पड़ता है। किन्तु भक्त की रुचि न तो भोग में रहती है न ही वह दुख से प्रभावित होता हैं। जब वह श्रीसम्पन्न होता है, तो वह जानता है कि मैं अपने पुण्यों को क्षीण कर रहा हूँ और जब दुख में होता है, तो वह जानता है कि मैं अपने अपवित्र कार्यों (पापों) के फल क्षय कर रहा हूँ। भक्त को सुख या दुख की परवाह नहीं रहती, वह तो केवल भक्ति करना चाहता है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि भक्ति को अप्रतिहता होना चाहिए अर्थात् भौतिक सुख या दुख की अवस्थाओं से बाधित होना चाहिए। भक्त अनेक प्रकार की तपस्याएं करता है, यथा वह एकादशी तथा अन्य व्रत रखता है; अवैध कामवासना से दूर रहता है, मद्यसेवन, द्यूतक्रीड़ा तथा मांसाहार से अपने को दूर रखता है। इस प्रकार वह अपने पूर्व अपवित्र जीवन के फलों से शुद्ध होता है और चूँकि वह अत्यन्त पवित्र कार्य, भक्ति, में प्रवृत्त होता है, अत: बिना अतिरिक्त प्रयास के इस जीवन का सुख भोगता है।
 
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