श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  4.12.15 
मन्यमान इदं विश्वं मायारचितमात्मनि ।
अविद्यारचितस्वप्नगन्धर्वनगरोपमम् ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
मन्यमान:—मानते हुए; इदम्—यह; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; माया—बहिरंगा शक्ति द्वारा; रचितम्—निर्मित; आत्मनि—जीवात्मा को; अविद्या—मोह से; रचित—निर्मित; स्वप्न—स्वप्न; गन्धर्व-नगर—मायाजाल; उपमम्—सदृश ।.
 
अनुवाद
 
 श्रील ध्रुव महाराज को अनुभव हो गया कि यह दृश्य-जगत जीवात्माओं को स्वप्न अथवा मायाजाल के समान मोहग्रस्त करता रहता है, क्योंकि यह परमेश्वर की बहिरंगा शक्ति माया की सृष्टि है।
 
तात्पर्य
 कभी-कभी घने जंगल में ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ बड़े-बड़े प्रासाद तथा सुन्दर नगर हैं। इन्हें पारिभाषिक शब्दों में गंधर्व नगर कहते हैं। इसी प्रकार स्वप्न में भी हम कल्पना से अनेक मिथ्या वस्तुओं की सृष्टि करते रहते हैं। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति अथवा भक्त यह भलीभाँति जानता है कि यह दृश्य जगत क्षणिक है और माया-रूप बनकर सत्य प्रतीत हो रहा है। यह मायाजाल के सदृश्य है। किन्तु इस छाया-सृष्टि के पीछे वास्तविकता रहती है और वह है आध्यात्मिक-जगत। भक्त तो आध्यात्मिक-जगत में रुचि रखता है, इसकी छाया में उसकी रुचि नहीं रहती। चूँकि उसे परम सत्य का बोध हो चुका होता है इस कारण वह सत्य की क्षणिक छाया में रुचि नहीं दिखाता। इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है (परं दृष्ट्वा निवर्तते)।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥