अन्त में ध्रुव महाराज ने सारी पृथ्वी पर फैले और महासागरों से घिरे अपने राज्य को त्याग दिया। उन्होंने अपने शरीर, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों, सेना, समृद्ध कोश, सुखकर महलों तथा विनोद-स्थलों को माया की सृष्टियाँ मान लिया। इस तरह वे कालक्रम में हिमालय पर्वत पर स्थित बदरिकाश्रम के वन में चले गये।
तात्पर्य
जीवन के प्रारम्भ में जब ध्रुव महाराज भगवान् की खोज में जंगल गये थे तो उन्होंने यह अनुभव किया था कि सभी शारीरिक सुख माया की उपज हैं। निस्सन्देह शुरू-शुरू में वे अपने पिता का राज्य चाहते थे और इसी की प्राप्ति के लिए भगवान् की खोज में निकले थे। किन्तु बाद में उन्होंने यह अनुभव किया कि हर वस्तु माया द्वारा उत्पन्न है। श्रील धुव्र महाराज के कार्यों से हम यह समझ सकते हैं कि यदि कोई शुरू में किसी भी लक्ष्य को लेकर कृष्णभावनाभावित हो जाता है, तो अन्त में उसे वास्तविक सत्य का बोध हो जाएगा। प्रारम्भ में ध्रुव महाराज अपने पिता का राज्य प्राप्त करने की धुन में थे, किन्तु बाद में वे महाभागवत बन गये और भौतिक सुख से उनकी रुचि जाती रही। जीवन की पूर्णता केवल भक्त ही प्राप्त कर सकते हैं। यदि कोई भक्ति का शतांश ही पूरा करके अपरिपक्क अवस्था में भ्रष्ट हो जाता है, तब भी वह उस मनुष्य से श्रेष्ठ है, जो इस जगत के सकाम कर्मों में लगातार लगा रहता है।
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