श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 12: ध्रुव महाराज का भगवान् के पास जाना  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  4.12.16 
आत्मस्त्र्यपत्यसुहृदो बलमृद्धकोश-
मन्त:पुरं परिविहारभुवश्च रम्या: ।
भूमण्डलं जलधिमेखलमाकलय्य
कालोपसृष्टमिति स प्रययौ विशालाम् ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
आत्म—शरीर; स्त्री—पत्नियाँ; अपत्य—सन्तानें; सुहृद:—मित्र; बलम्—प्रभाव, सेना; ऋद्ध-कोशम्—समृद्ध खजाना; अन्त: पुरम्—रनिवास; परिविहार-भुव:—क्रीड़ा-स्थल; च—तथा; रम्या:—सुन्दर; भू-मण्डलम्—पूरी पृथ्वी; जल-धि—समुद्रों द्वारा; मेखलम्—घिरा; आकलय्य—मान कर; काल—समय द्वारा; उपसृष्टम्—उत्पन्न; इति—इस प्रकार; स:—वह; प्रययौ— चला गया; विशालाम्—बदरिकाश्रम को ।.
 
अनुवाद
 
 अन्त में ध्रुव महाराज ने सारी पृथ्वी पर फैले और महासागरों से घिरे अपने राज्य को त्याग दिया। उन्होंने अपने शरीर, पत्नियों, सन्तानों, मित्रों, सेना, समृद्ध कोश, सुखकर महलों तथा विनोद-स्थलों को माया की सृष्टियाँ मान लिया। इस तरह वे कालक्रम में हिमालय पर्वत पर स्थित बदरिकाश्रम के वन में चले गये।
 
तात्पर्य
 जीवन के प्रारम्भ में जब ध्रुव महाराज भगवान् की खोज में जंगल गये थे तो उन्होंने यह अनुभव किया था कि सभी शारीरिक सुख माया की उपज हैं। निस्सन्देह शुरू-शुरू में वे अपने पिता का राज्य चाहते थे और इसी की प्राप्ति के लिए भगवान् की खोज में निकले थे। किन्तु बाद में उन्होंने यह अनुभव किया कि हर वस्तु माया द्वारा उत्पन्न है। श्रील धुव्र महाराज के कार्यों से हम यह समझ सकते हैं कि यदि कोई शुरू में किसी भी लक्ष्य को लेकर कृष्णभावनाभावित हो जाता है, तो अन्त में उसे वास्तविक सत्य का बोध हो जाएगा। प्रारम्भ में ध्रुव महाराज अपने पिता का राज्य प्राप्त करने की धुन में थे, किन्तु बाद में वे महाभागवत बन गये और भौतिक सुख से उनकी रुचि जाती रही। जीवन की पूर्णता केवल भक्त ही प्राप्त कर सकते हैं। यदि कोई भक्ति का शतांश ही पूरा करके अपरिपक्क अवस्था में भ्रष्ट हो जाता है, तब भी वह उस मनुष्य से श्रेष्ठ है, जो इस जगत के सकाम कर्मों में लगातार लगा रहता है।
 
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