बदरिकाश्रम में ध्रुव महाराज की इन्द्रियाँ पूर्णत: शुद्ध हो गईं क्योंकि वे स्वच्छ शुद्ध जल में नियमित रूप से स्नान करते थे। वे आसन पर स्थित हो गये और फिर उन्होंने योगक्रिया से श्वास तथा प्राणवायु को वश में किया। इस प्रकार उन्होंने अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से समेट लिया। तब उन्होंने अपने मन को भगवान् के अर्चाविग्रह रूप में केन्द्रित किया जो भगवान् का पूर्ण प्रतिरूप है और इस प्रकार से उनका ध्यान करते हुए वे पूर्ण समाधि में प्रविष्ट हो गये।
तात्पर्य
यहाँ पर अष्टांग-योग-पद्धति का वर्णन हुआ है, जिसके ध्रुव महाराज पहले से अभ्यस्त थे। अष्टांग-योग किसी चकाचौंध वाले शहर में अभ्यास करने के लिए कभी नहीं था। अत: ध्रुव महाराज बदरिकाश्रम गये और एकान्त स्थान में योगाभ्यास करने लगे। उन्होंने अपना मन अर्चा-विग्रह पर केन्द्रित किया, जो परमेश्वर का सही प्रतिनिधित्व करता है और इस प्रकार इस विग्रह का निरन्तर चिन्तन करते हुए वे समाधि में लीन हो गये। अर्चा-विग्रह की पूजा मूर्तिपूजा नहीं है। अर्चा-विग्रह तो भक्तों को ग्राह्य भगवान् के अवतार का प्रतिरूप है। अत: भक्तगण मन्दिर में भगवान् की सेवा अर्चा विग्रह रूप में करते हैं, जो स्थूल पदार्थ यथा पत्थर, धातु, काष्ठ, रत्न या रंग का बना स्वरूप है। ये सभी पदार्थ स्थूल अथवा भौतिक प्रतीक कह जाते हैं। चूँकि भक्तगण पूजा के विधि-विधान का पालन करते हैं, अत: वहाँ पर भौतिक रूप में होते हुए भी भगवान् अपने आदि आत्म-रूप से अभिन्न रहते हैं। इस प्रकार भक्त को जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त होता है, अर्थात् वह भगवान् के विचार में लीन रहता है। भगवान् का यह निरन्तर विचार, जिसकी संस्तुति भगवद्गीता में की गई है, मनुष्य को सर्वोच्च योगी बना देता है।
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